शिव पुराण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि शिव जी की बारात हिमवान के द्वार तक आई और बरात का खूब स्वागत हुआ। उस अवसर पर मेना के मन में भगवान् शिव के दर्शन की इच्छा हुई। इसलिये उन्होंने नारद जी को बुलवाया। उस समय भगवान् शिव से प्रेरित होकर उनका हार्दिक अभिप्राय पूर्ण करने की इच्छा से नारद जी वहाँ गये। मेना उन्हें प्रणाम करके बोलीं- मुने! गिरिजा के होने वाले पति को पहले मैं देखूँगी। शिव का कैसा रूप है, जिनके लिये मेरी बेटी ने ऐसी उत्कृष्ट तपस्या की है। उस समय भगवान् शिव भी मेना के भीतर के अहंकार को जानकर श्री विष्णु और ब्रह्मा से अद्भुत लीला करते हुए बोले। शिव ने कहा-तात ! आप दोनों मेरी आज्ञा से देवताओं सहित अलग-अलग होकर गिरिराज के द्वार पर चलिये। हम पीछे से आयेंगे।
यह सुनकर भगवान् श्री हरि ने सब देवताओं को वैसा करने के लिये बुलाकर कहा। शिव के चिन्तन में तत्पर रहने वाले समस्त देवताओं ने शीघ्र वैसी ही व्यवस्था करके उत्सुकता पूर्वक वहाँ से पृथक् पृथक् यात्रा की। मेना अपने महल के सबसे ऊपरी भवन में नारद जी के साथ खड़ी थीं। उस समय भगवान् विश्वेश्वर ने अपने को ऐसी वेष-भूषा में दिखाया, जिससे मेना के हृदय को ठेस पहुँचे। सबसे पहले बारात के जुलूस में विविध वाहनों पर विराजित खूब सजे-धजे बाजे-गाजे के साथ पताकाएँ फहराते हुए वसु आदि गन्धर्व आये। फिर मणिग्रीवादि यक्ष, तदनन्तर क्रम से यमराज, निरति, वरुण, वायु, कुबेर, ईशान, देवराज इन्द्र, चन्द्रमा, सूर्य, भृगु आदि मुनीश्वर तथा ब्रह्मा आये।
ये सब उत्तरोत्तर एक-से-एक विशेष सुन्दर शोभामय रूप-गुण से सम्पन्न थे। इनमें से प्रत्येक दल के स्वामी को देखकर मेना पूछती थी कि ‘क्या ये ही शिव हैं?’ नारद जी कहते- ‘यह तो शिवके सेवक हैं।’ मेना यह सुनकर बड़ी प्रसन्न होतीं और हर्ष में भरकर मन-ही-मन कहतीं- ये उनके सेवक ही जब इतने सुन्दर हैं, तब वे सबके स्वामी शिव तो पता नहीं कितने सुन्दर होंगे? इसी बीच में वहाँ भगवान् विष्णु पधारे। वे सम्पूर्ण शोभा से सम्पन्न श्रीमान्, नूतन जलधर के समान श्याम तथा चार भुजाओं से संयुक्त थे। उनका लावण्य करोड़ों कंदर्पों को लज्जित कर रहा था। वे पीताम्बर धारण करके अपनी सहज प्रभा से प्रकाशित हो रहे थे। उनके सुन्दर नेत्र प्रफुल्ल कमल की शोभा को छीने लेते थे। उनकी आकृति से शान्ति बरस रही थी।
पक्षिराज गरुड़ उनके वाहन थे। शंख, चक्र आदि लक्षणों से युक्त मुकुट आदि से विभूषित, वक्ष:स्थल में श्रीवत्स का चिह्न धारण किये वे लक्ष्मीपति विष्णु अपने अप्रमेय प्रभापुंज से प्रकाशमान थे। उन्हें देखते ही मेना के नेत्र चकित हो गये। वे बड़े हर्ष से बोलीं-‘अवश्य ये ही मेरी शिवा के पति साक्षात् भगवान् शिव हैं, इसमें संशय नहीं है। मुने ! तुम भी लीला करने वाले ही ठहरे। अत: मेना की यह बात सुनकर नारद उनसे बोले- ‘देवि ! ये शिवा के पति नहीं हैं,अपितु भगवान् केशव हरि हैं। भगवान् शंकर के सम्पूर्ण कार्यों के अधिकारी तथा उनके प्रिय हैं। पार्वती के पति जो शिव हैं, उन्हें इनसे भी बढ़कर समझना चाहिये। उनकी शोभा का वर्णन मुझसे नहीं हो सकता।
वे ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के अधिपति, सर्वेश्वर तथा स्वयम् प्रकाश परमात्मा हैं। इस बात को सुनकर मेना ने उन शुभ लक्षणा उमा को महान् धन-वैभव से सम्पन्न, सौभाग्यवती तथा तीनों कुलों के लिये सुखदायिनी माना। वे मुख पर प्रसन्नता लाकर प्रीतियुक्त हृदय से अपने सर्वाधिक सौभाग्य का बारंबार वर्णन करती हुई बोलीं।मेना ने कहा- इस
समय मैं पार्वती को जन्म देने के कारण सर्वथा धन्य हो गयी। ये गिरीश्वर भी धन्य हैं तथा मेरा सब कुछ परम धन्य हो गया। जिन-जिन अत्यन्त तेजस्वी देवताओं और देवेश्वरों का मैंने दर्शन किया है, इन सबके जो पति हैं, वे मेरी पुत्री के पति होंगे। उसके सौभाग्य का क्या वर्णन किया जाय? भगवान् शिव को पतिरूप में पाने के कारण पार्वती के सौभाग्य का सौ वर्षों में भी वर्णन नहीं किया जा सकता।