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Valmiki Ramayana Part 150: भरत से मिलकर दूर हो गया निषादराज गुह का संदेह! खुले मन से क्यों की भरत की प्रशंसा

जीवांजलि धर्म डेस्क Published by: निधि Updated Mon, 10 Jun 2024 03:20 PM IST
सार

Valmiki Ramayana Part 150: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ कि निषाद राज ने जब भरत को देखा तो उसे ऐसा लगा कि वो श्री राम का अहित करने के लिए आया है।

Valmiki Ramayana
Valmiki Ramayana- फोटो : jeevanjali

विस्तार

Valmiki Ramayana Part 150: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ कि निषाद राज ने जब भरत को देखा तो उसे ऐसा लगा कि वो श्री राम का अहित करने के लिए आया है। इसके बाद सुमंत्र जी ने भरत जी को निषाद राज का परिचय दिया। इसके बाद, निषादराज गुह ने भरत जी का आदर सत्कार किया। भरत जी बोले, तुम मेरे बड़े भाई श्रीराम के सखा हो। मेरी इतनी बड़ी सेना का सत्कार करना चाहते हो, यह तुम्हारा मनोरथ बहुत ही ऊँचा है। 
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तुम उसे पूर्ण ही समझो। तुम्हारी श्रद्धा से ही हम सब लोगों का सत्कार हो गया। यह कहकर महा तेजस्वी श्रीमान् भरत ने गन्तव्य मार्ग को हाथ के संकेत से दिखाते हुए पुनः गुह से उत्तम वाणी में पूछा, इन दो मार्गों में से किसके द्वारा मुझे भरद्वाज मुनि के आश्रम पर जाना होगा? गङ्गा के किनारे का यह प्रदेश तो बड़ा गहन मालूम होता है। 
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राजकुमार भरत का यह वचन

इसे लाँघकर आगे बढ़ना कठिन है। बुद्धिमान् राजकुमार भरत का यह वचन सुनकर वन में विचरने वाले गुह ने हाथ जोड़कर कहा, आपके साथ बहत-से मल्लाह जायँगे, जो इस प्रदेश से पूर्ण परिचित तथा भलीभाँति सावधान रहने वाले हैं। इनके सिवा मैं भी आपके साथ चलूँगा। परन्तु एक बात बताइये, अनायास ही महान् पराक्रम करने वाले श्रीरामचन्द्रजी के प्रति आप कोई दुर्भावना लेकर तो नहीं जा रहे हैं? आपकी यह विशाल सेना मेरे मन में शङ्का-सी उत्पन्न कर रही है। ऐसी बात कहते हुए गुह से आकाश के समान निर्मल भरत ने मधुर वाणी में कहा, ऐसा समय कभी न आये। 

किसी कारण भरत पर हुआ संदेह?

तुम्हारी बात सुनकर मुझे बड़ा कष्ट हुआ। तुम्हें मुझ पर संदेह नहीं करना चाहिये। श्री रघुनाथजी मेरे बड़े भाई हैं। मैं उन्हें पिता के समान मानता हूँ। श्रीराम वन में निवास करते हैं, अतः उन्हें लौटा लाने के लिये जा रहा हूँ। गुह ! मैं तुमसे सच कहता हूँ। तुम्हें मेरे विषय में कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। भरत की बात सुनकर निषादराज का मुँह प्रसन्नता से खिल उठा। वह हर्ष से भरकर पुनः भरत से बोला, आप धन्य हैं, जो बिना प्रयत्न के हाथ में आये हुए राज्य को त्याग देना चाहते हैं। 

आपके समान धर्मात्मा मुझे इस भूमण्डल में कोई नहीं दिखायी देता। कष्टप्रद वन में निवास करने वाले श्रीराम को जो आप लौटा लाना चाहते हैं, इससे समस्त लोकों में आपकी अक्षय कीर्ति का प्रसार होगा।गुहके बर्ताव से श्रीमान् भरत को बड़ा संतोष हुआ और वे सेना को विश्राम करने की आज्ञा दे शत्रुघ्न के साथ शयन करने के लिये गये। परिवार सहित एकाग्रचित्त महानुभाव भरत जब गुह से मिले, उस समय उनके मन में बड़ा दुःख था। वे अपने बड़े भाई के लिये चिन्तित थे, अतः गुह ने उन्हें पुनः आश्वासन दिया।

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