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Bhagavad Gita Part 142: क्या अपने मन को ईश्वर पर केन्द्रित करना आसान है? भगवान श्री कृष्ण ने दिया उत्तर

जीवांजलि धार्मिक डेस्क Published by: निधि Updated Wed, 29 May 2024 01:57 PM IST
सार

Bhagavadgita Part 142: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, कृष्ण अर्जुन से कहते है कि अगर कोई सांसारिक कर्म करते हुए अपने मन को ईश्वर में लगा दे तो उसकी मुक्ति अवश्य हो जाती है।

Bhagavadgita
Bhagavadgita- फोटो : JEEVANJALI

विस्तार

Bhagavadgita Part 142: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, कृष्ण अर्जुन से कहते है कि अगर कोई सांसारिक कर्म करते हुए अपने मन को ईश्वर में लगा दे तो उसकी मुक्ति अवश्य हो जाती है। इसके बाद कृष्ण इस बात को और अच्छे तरह से स्पष्ट करते हुए कहते है कि, 
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अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना। परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ( अध्याय 8 श्लोक 8 )

अभ्यास-योग–योग के अभ्यास द्वारा; युक्तेन निरन्तर स्मरण में लीन रहना; चेतसा-मन द्वारा; न-अन्य-गामिना-बिना विचलित हुए; परमम-परम; पुरुषम्-पुरुषोत्तम भगवान; दिव्यम्-दिव्य; याति प्राप्त करता है; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; अनुचिन्तयन्–निरन्तर स्मरण करना।

अर्थ - हे पार्थ ! अभ्यास के साथ जब तुम अविचलित भाव से मन को मुझ पुरुषोत्तम भगवान के स्मरण में लीन करते हो तब तुम निश्चित रूप से मुझे पा लोगे। 
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व्याख्या - पिछले श्लोक में श्री कृष्ण ने यह कह तो दिया कि अपने मन को ईश्वर में लगाओ लेकिन यह इतना आसान नहीं हो सकता है। हमारा मन जो सोचता है उसी से भविष्य की भूमिका बन जाती है इसलिए अपने मन को सांसारिक जगत से हटा लेना बड़ा मुश्किल काम है। इसलिए अब कृष्ण अभ्यास पर जोर दे रहे है। वो कहते है कि संसार की सभी घटनाओं से विचलित नहीं होकर अपने मन को सदैव भगवान् के चरणों में लगाए रखना लक्ष्य होना चाहिए। मनुष्य को इस प्रकार से अभ्यास करना चाहिए कि उसका शरीर भले की सांसारिक कर्म करें लेकिन उसका मन सदैव कृष्ण भक्ति में लीन रहना चाहिए। 

कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः। सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ( अध्याय 8 श्लोक 9 )

कविम्-कवि, सर्वज्ञः पुराणम्-प्राचीन, अनुशासितारम्-नियन्ता; अणो:-अणु से; अणीयांसम्-लघुतर; अनुस्मरेत्-सदैव सोचता है; यः-जो; सर्वस्य–सब कुछ; धातारम्-पालक; अचिन्त्य-अकल्पनीयः रूपम्-दिव्य स्वरूप; आदित्य-वर्णम्-सूर्य के समान तेजवान; तमसः-अज्ञानता का अंधकार; परस्तात्-परे।

अर्थ - भगवान सर्वज्ञ, आदि पुरूष, नियन्ता, सूक्ष्म से सूक्ष्मतम, सबका पालक, अज्ञानता के सभी अंधकारों से परे और सूर्य से अधिक तेजवान हैं और अचिंतनीय दिव्य स्वरूप के स्वामी हैं।

व्याख्या - इस श्लोक में भगवान् श्री कृष्ण इस बात को समझा रहे है कि ईश्वर का ध्यान क्यों करना चाहिए ? भगवान् सब कुछ जानते है। हम सिर्फ वही समझते है जो हमें दिखाई दे रहा है लेकिन ईश्वर इस संसार का भुत, भविष्य और वर्तमान सब समझते है। वो आदि पुरुष है क्यूंकि इस संसार में वही व्याप्त है। उन्होंने ही इस संसार की रचना करके जल में विश्राम किया और उन्हें नारायण कहा गया। वो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है क्यूंकि वो एक हाथी से लेकर चींटी तक के शरीर में आत्मा के रूप में विराजमान है। 

वो सबके पालक है क्यूंकि अनगिनत ब्रह्माण्ड और आकाश गंगा वही बनाते है और वही नष्ट कर देते है। वो अज्ञानता को धारण नहीं करते है बल्कि समय समय पर अपने अंश से अवतार लेकर दिव्य ज्ञान का प्रसार करते है। वो सूर्य से भी अधिक तेजवान है क्युकि वो संसार के सबसे उत्तम योद्धा है। कोई उनका मुकाबला नहीं सकता है। उनका रूप दिव्य है जिनका चिंतन तो बहुत दूर की बात है उसे समझना भी बेहद कठिन है। करोड़ों वर्ष के तप के बाद उनका स्वरुप कोई देख सकता है। वो मधुर है और अपने भक्तों का सदैव कल्याण करने वाले है।

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