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Bhagavad Gita Part 139: जानिए क्या है ब्रह्म, आध्यात्म और कर्म का महत्व? समझिए

जीवांजलि धार्मिक डेस्क Published by: निधि Updated Sat, 25 May 2024 04:32 PM IST
सार

Bhagavad Gita Part 139: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, अर्जुन भगवान् श्री कृष्ण से अष्टम अध्याय की शुरुआत में कुछ प्रश्न करते है। अब श्री कृष्ण उनका जवाब देना शुरू करते है। 

Bhagavad Gita
Bhagavad Gita- फोटो : JEEVANJALI

विस्तार

Bhagavad Gita Part 139: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, अर्जुन भगवान् श्री कृष्ण से अष्टम अध्याय की शुरुआत में कुछ प्रश्न करते है। अब श्री कृष्ण उनका जवाब देना शुरू करते है। 
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अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते। भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसज्ञितः ( अध्याय 8 श्लोक 3 )

अक्षरम्-अविनाशी; ब्रह्म-ब्रह्म परमम्-सर्वोच्च; स्वभाव-प्रकृति; अध्यात्मम्-अपनी आत्मा; उच्यते-कहलाता है; भूत-भाव-उद्भव-करः-जीवों की भौतिक संसार से संबंधित गतिविधियाँ और उनका विकास, विसर्गः-सृष्टि; कर्म-सकाम कर्म; सञ्जितः-कहलाता है।

अर्थ - परम अविनाशी सत्ता को ब्रह्म कहा जाता है। किसी मनुष्य की अपनी आत्मा को अध्यात्म कहा जाता है। प्राणियों के दैहिक व्यक्तित्व से संबंधित कर्मों और उनकी विकास प्रक्रिया को कर्म या साकाम कर्म कहा जाता है।  
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व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण ब्रह्म, आध्यात्म और कर्म के बारे में समझाते है। कृष्ण कहते है कि एक ऐसी सत्ता का स्वामी जिसका कभी विनाश नहीं हो सकता यानी कि जो कभी नष्ट नहीं हो सकता है उसे ब्रह्म कहा जा सकता है। हम सब ईश्वर को न जाने किन किन नामों से पुकारते है उनमे से एक नाम 'ब्रह्म' भी है। जिस संसार में हम रहते है और जिन चीजों का अनुभव करते है, जिन बंधनों में पड़कर हम कर्म करते है ईश्वर इन सबसे मुक्त है। वो कर्म और कर्म बंधन से नहीं बंधे हुए है। ईश्वर स्वयं माया को पैदा करते है इसलिए माया का भी उनके ऊपर किसी भी प्रकार का कोई प्रभाव नहीं होता है। 

आगे कृष्ण कहते है कि आत्मा का विज्ञान ही आध्यात्म है। पिछले अध्यायों में श्री कृष्ण आत्मा और शरीर के बारे में विस्तार से समझा चुके है। इसलिए जो व्यक्ति अपनी आत्मा को जानने का प्रयास कर रहा है वो आध्यात्मिक है। आत्मा, शरीर, मन और बुद्धि इन सबको शुद्ध कर लेने पर भक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। इसके बाद कृष्ण कर्म को बारे में बताते है। वो अर्जुन से कहते है कि, शरीर के द्वारा जो कार्य संपन्न किए जाते है उन्हें हम कर्म करते है। हालांकि कर्म भी कई प्रकार के होते है जो पिछले अध्यायों में स्पष्ट किया जा चुका है। जीवात्मा एक जन्म से दूसरे जन्म में अलग अलग शरीर धारण करती है और उसकी रुपरेखा कर्म ही निर्धारित करते है। 

ये जो संसार रूपी भौतिक जगत दिखाई दे रहा है यहां सब कर्म के बंधन के कारण ही है। इसलिए ही कृष्ण कर्मयोग की बात पिछले अध्यायों में कर चुके है। एक ऐसा व्यक्ति जो कर्म और कर्म के फल से मुक्त हो जाता है फिर उसके कर्म उसे किसी बंधन में नहीं डाल सकते है। वो कृष्ण के चरणों की भक्ति को प्राप्त करते उनका धाम प्राप्त करता है।
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