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Bhagavad Gita Part 140: अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ के क्या अर्थ है? श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझाया

जीवांजलि धार्मिक डेस्क Published by: निधि Updated Mon, 27 May 2024 04:41 PM IST
सार

Bhagavad Gita Part 140: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, श्री कृष्ण अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए ब्रह्म क्या है? आध्यात्म क्या है? कर्म क्या है ?

Bhagavad Gita
Bhagavad Gita- फोटो : JEEVANJALI

विस्तार

Bhagavad Gita Part 140: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, श्री कृष्ण अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए ब्रह्म क्या है? आध्यात्म क्या है? कर्म क्या है ? इन 3 प्रश्न का उत्तर देते है। अब आगे भगवान् 3 और प्रश्नों का उत्तर दे रहे है। 
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अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्। अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ( अध्याय 8 श्लोक 4 )


अधिभूतम्-भौतिक अभिव्यक्ति में नित्य परिवर्तन; क्षर:-नाशवान; भावः-प्रकृति; पुरुषः-भौतिक सृष्टि में व्याप्त भगवान का ब्रह्माण्डीय स्वरूप; च-तथा; अधिदैवतम्-स्वर्ग के देवता; अधियज्ञः-सभी यज्ञों के स्वामी; अहम् मैं (कृष्ण); एव-निश्चय ही; अत्र-इस; देहे-शरीर में; देह-भृताम्-देहधारियों में; वर-श्रेष्ठ।

अर्थ - भौतिक अभिव्यक्ति जो निरन्तर परिवर्तित होती रहती है उसे अधिभूत कहते हैं। भगवान का विश्व रूप जो इस सृष्टि में देवताओं पर भी शासन करता है उसे अधिदैव कहते हैं। सभी प्राणियों के हृदय में स्थित, मैं परमात्मा अधियज्ञ या सभी यज्ञों का स्वामी कहलाता हूँ।  
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व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण 3 और प्रश्न का उत्तर दे रहे है। अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ से जुड़ा सवाल। सबसे पहले श्री कृष्ण समझाते है कि, यह जो ब्रह्मांड दिखाई दे रहा है वह अधिभूत है। इसमें प्रकृति के 5 तत्व शामिल है। जल, अग्नि, वायु, आकाश और पृथ्वी को मिलाकर यह संसार पूर्ण होता है लेकिन एक समय के बाद यह नष्ट भी हो जाता है। इसके बाद कृष्ण कहते है कि जो ईश्वर है यानी कि जो देवताओं के भी स्वामी है। जिनका शरीर नश्वर है उसे अधिदैव कहा जाता है। ईश्वर इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी है इसलिए उन्हें परम ईश्वर कहा जाता है। आगे कृष्ण कहते है कि विष्णु का एक रूप समस्त प्राणियों के हृदय में विराजमान रहता है। इसलिए वो परमात्मा ही यज्ञ के स्वामी है या अधियज्ञ है। इस संसार में सभी यज्ञ उनकी संतुष्टि के लिए ही किए जा रहे है। 

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्। यः प्रयाति स मुद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ( अध्याय 8 श्लोक 5 )

अन्त-काले-मृत्यु के समय; च-और; माम्-मुझे; एवं-केवल; स्मरन्-स्मरण करते हुए; मुक्त्वा -त्यागना; कलेवरम्-शरीर को; यः-जो; प्रयाति–जाता है। सः-वह; मत्-भावम्-मेरे (भगवान के) स्वभाव को; याति-प्राप्ति करता है; न-नहीं; अस्ति–है; अत्र-यहाँ; संशयः-सन्देह।

अर्थ - वे जो शरीर त्यागते समय मेरा स्मरण करते हैं, वे मेरे पास आएँगे। इस संबंध में निश्चित रूप से कोई संदेह नहीं है। 

व्याख्या - पिछले दो श्लोक में श्री कृष्ण अर्जुन को 6 प्रश्न का उत्तर दे चुके है। इस श्लोक में वो अंतिम प्रश्न का उत्तर दे रहे है जो मृत्यु से जुड़ा हुआ है। इस श्लोक में श्री कृष्ण इस बात की पुष्टि करते है कि जो भी जीवात्मा शरीर का त्याग करते समय उनका स्मरण करती है वो निश्चित तौर पर श्री कृष्ण को प्राप्त करती है। उन्हें कृष्ण की कृपा प्राप्त हो जाती है और इसमें किसी भी प्रकार का कोई संदेह नहीं है। हालांकि यह देखने में आया है कि यह इतना सरल भी नहीं है। इसके लिए मनुष्य को बाल अवस्था से ही अपना मन और बुद्धि ईश्वर की लीलाओं में लगानी चाहिए। मृत्यु के पीड़ा दायक अनुभूति है इसलिए उस समय भौतिक संसार से मन हटाकर ईश्वर में मन लगा देना इतना आसान नहीं होता है।

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