धर्म और भक्ति का प्रचार करने वाले संत को भगवान स्वयं चुनते हैं। इन दिव्य आत्माओं का आगमन एक पवित्र दंपति के घर होता है जिनकी भगवान में परम प्रीति हो और दिल एक दम निष्काम हो। यह संत अवतीर्ण होकर जन-जन को भगवान की आस्था में लगाते हैं और उनका उचित मार्गदर्शन करते हैं। इन संतों में एक संत हुए श्री मध्वाचार्य जी। जिन्होंने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण कर भक्ति का प्रचार किया। इन्होंने जगह-जगह पर शास्त्रार्थ कर विद्वानों के बीच बहुच ऊंचा स्थान प्राप्त किया।
श्रीमध्वाचार्य के जीवन से जुड़ी एक खास घटना है कि एक बार किसी व्यापारी का जहाज द्वारका से मालावार जा रहा था। वह तुलुब के पास डूब गया। जहाज में गोपीचन्दन से ढकी हुयी भगवान श्रीकृष्ण का एक विग्रह था। श्री मध्वाचार्य को भगवान से आज्ञा मिली। उन्होंने जल से विग्रह को निकालकर उडुपी में स्थापना की। इस दिन से ही यह स्थान मध्वमतानुयायियों का श्रेष्ठतीर्थ हो गया। इन्होंने उडुपी में और भी आठ मन्दिरों की स्थापना की। जिनका दर्शन कर लोग आज भी जीवन का वास्तविक लाभ प्राप्त करते हैं।
आइये जानते हैं श्री माध्वाचार्य के जीवन के बारे में
श्रीमध्वाचार्य का जन्म विक्रम संवत् 1295 की माघ शुक्ल सप्तमी के दिन तमिलनाडु के मंगलूर जिले के बेललि गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्रीनारायण भट्ट और इनकी माता का नाम श्रीमती वेदवती था। मान्यता है कि भगवान विष्णु की आज्ञा से भक्ति की रक्षा और प्रचार के लिये खुद श्रीवायुदेव ने ही श्रीमध्वाचार्य के रूप में अवतार लिया था। शुरुआत से ही ये अपनी अलौकिक प्रतिभा से लोगों को हैरान कर देते थे।
अल्पकाल में ही श्रीमध्वाचार्य जी को सम्पूर्ण विद्याओं का ज्ञान हो गया। जब इन्होंने संन्यास लेने की इच्छा रखी तो इनके माता-पिता ने मोहवश उसका विरोध किया। श्रीमध्वाचार्य ने अपने माता-पिता के तात्कालिक मोह को अपने अलौकिक ज्ञान से दूर कर दिया। इन्होंने 11 वर्ष की अवस्था में अद्वैतमत के प्रख्यात संन्यासी श्रीअच्युतपक्षाचार्य से संन्यास की दीक्षा ली। इनका संन्यास का नाम पूर्णप्रज्ञ रखा गया। संन्यास के बाद संत ने वेदान्त का गहरा अध्ययन किया। इनकी बुद्धि इतनी तेज थी कि इनके गुरु भी इनकी अलौकिक प्रतिभा से हैरान रह जाते थे। थोड़े ही समय में पूरे दक्षिण भारत में इनके ज्ञान की चर्चा होने लग गयी।
श्री माध्वाचार्य का भक्ति प्रचार
श्रीमध्वाचार्य ने पूरे देश में शास्त्रार्थ कर कई विद्वानों को पराजित किया। इनके शास्त्रार्थ का उद्देश्य भगवत भक्ति का प्रचार, वेदों की प्रामाणिकता की स्थापना, मायावाद का खण्डन तथा शास्त्र मर्यादा की रक्षा करना था। इन्होंने गीताभाष्य का निर्माण करने के बाद बदरीनारायण की यात्रा की। श्री मध्वाचार्य को यहां भगवान वेदव्यास के दर्शन हुए। अनेक राजा इनके शिष्य बने। विभिन्न विद्वानों ने इनसे प्रभावित होकर इनका मत स्वीकार किया। कथाओं के अनुसार, इन्होंने अनेक प्रकार की योग-सिद्धियाँ प्राप्त की। बदरीनारायण में श्रीव्यासजी ने इनपर खुश होकर तीन शालिग्राम शिलाएं दी थीं। श्रीमाध्वाचार्य जी ने इन शालिग्राम को सुब्रह्मण्य, मध्यतल और उडुपी में विराजमान किया।
श्री माध्वाचार्य ने अपने जीवन के अन्तिम समय में सरिदन्तर नाम के स्थान में निवास किया। इसी स्थान पर संत ने अपने पाञ्चभौतिक शरीर का त्याग किया। देहत्याग के वक्त इन्होंने अपने शिष्य पद्मनाथतीर्थ को श्रीराम जी की मूर्ति और व्यासजी की दी हुई शालिग्राम शिला देकर अपने मत के प्रचार की आज्ञा दी। इनके शिष्यों ने अनेकों मठ स्थापित किए। श्रीमध्वाचार्य ने अनेक ग्रन्थों की रचना, पाखण्डवाद का खण्डन और भगवान की भक्ति का प्रचार कर लाखों लोगों को कल्याण मार्ग का पथिक बनाया।