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Shri Vallabhacharya: अंतिम समय में आकाश में विलीन हुए थे श्री वल्लभाचार्य, ऐसा पावन था इनका जीवन

jeevanjali Published by: निधि Updated Sat, 19 Aug 2023 01:58 PM IST
सार

भगवान के भक्ति मार्ग में चलने वाले प्राणी का जीवन तो सुगम होता ही है बल्कि उसका अंत समय भी सुख से बीतता है। मान्यता है कि भागवत आश्रित के प्राण शरीर से ऐसे छुटते हैं जैसे हाथी की गरदन से माला टूटकर गिर गयी।

श्री वल्लभाचार्य
श्री वल्लभाचार्य- फोटो : Jeevanjali

विस्तार

भगवान के भक्ति मार्ग में चलने वाले प्राणी का जीवन तो सुगम होता ही है बल्कि उसका अंत समय भी सुख से बीतता है। मान्यता है कि भागवत आश्रित के प्राण शरीर से ऐसे छुटते हैं जैसे हाथी की गरदन से माला टूटकर गिर गयी। हाथी को माला का कोई फर्क ही नहीं पड़ता। वहीं भगवान से विमुख व्यक्ति के प्राण इस प्रकार निकलते हैं जैसे कांटों भरी झाड़ियों पर से सूती चुनरी को खिचना। वह बुरी तरह चीर जाती है। 
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भारत देश की भूमि से एक से बढ़कर एक संत हुए जिन्होंने साक्षात् भगवान को पाया। इसके अलावा अंत समय में वे भगवान में ही लीन हो गये या भगवान उन्हें स्वयं लेने आये। इस कड़ी में एक महान संत हुए श्री वल्लभाचार्य जी। इनके भगवत धाम जाने की एक कथा बहुत मशहूर है। यह अपने जीवन के अंतिम समय में काशी में निवास करते थे। एक दिन जीवन से जुड़े सब कार्य समाप्त कर ये हनुमानघाट पर गंगास्नान करने के लिए गए। जिस स्थान पर ये स्नान कर रहे थे वहां से एक उज्जववल ज्योति उठी और बहुत से व्यक्तियों के सामने श्रीवल्लभाचार्य ऊपर उठने लगे और धीरे-धीरे आकाश में गायब होकर भगवान के धाम को चले गये।

वल्लभाचार्य जी की जन्मकथा

आचार्यपाद श्रीवल्लभका जन्म वि. सं. 1535 वैशाख कृष्ण 11 को चम्पारण्य (रायपुर, सी.पी.) में हुआ था। जिनके पिता का नाम लक्ष्मणभट्टजी और माता का नाम श्रीइलम्मा था जो उत्तरादि तैलंग ब्राह्मण थे। मान्यता है कि जिस वंश में सौ सोमयज्ञ पूरे हो जाते हैं उसके कुल में स्वयं भगवान जन्म लेते हैं। इस नियमानुसार श्री लक्ष्मणभट्ट जी के काल में सौ सोमयज्ञ पूर्ण होने से श्री वल्लभ के रूप में स्वयं भगवान इस कुल को मिले। संसार में बहुत से महानुभावों ने इन्हें अग्निदेव का अवतार माना है। सोमयज्ञ पूरा होने के उपलक्ष में पिता लक्ष्मणभट्ट जी ने काशी में ब्राह्मणभोजन कराने के उद्देश्य से पत्नी के साथ प्रस्थान किया। काशी पहुंचने के रास्ते में चम्पारण्य में श्री वल्लभजी का जन्म हो गया। 
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श्रीवल्लभ जी जन्म से ही आकर्षण पैदा करने वाले बालक थे। उनकी बुद्धि और चेतना सबको हैरान कर देने वाली थी। उन्हें देखते ही लोग पहचान जाते की यह बालक के भेष में कोई दिव्य आत्मा है। उचित समय से इनके सभी संस्कार हुए। श्री वल्लभ जी ने काशी में श्रीमाधवेन्द्रपुरी से वेद-शास्त्र का पूर्ण अध्यन किया। बहुत तेज बुद्धि होने से यह महज 11 वर्ष की आयु इन्होंने पूरा अध्यन ग्रहण कर लिया।

राजा कृष्णदेव की सभा में  शास्त्रार्थ

विद्या ग्रहण करने के बाद श्री वल्लभ जी काशी से वृन्दावन गये और वहां कुछ दिन रहने के बाद तीर्थाटन के लिए रवाना हो गए। इस दौरान ये विजयनगर के राजा कृष्णदेव की सभा में उपस्थित हुए जहां बड़े-बड़े विद्वानों को शास्त्रार्थ में हराया। यहीं पर इन्हें  वैष्णवाचार्य की उपाधि प्राप्त हुयी। राजा ने श्री वल्लभाचार्य को सोने के सिंहसन पर बैठाकर सांगोपांग पूजन किया और बहुत सारा सोना दिया। श्री वल्लभाचार्य ने कुछ धन रखकर सब बांट दिया। 

श्रीवल्लभ जी विजयनगर से चलकर उज्जैन गये और वहां शिप्रा नदी के तटपर एक पीपलवृक्ष के नीचे निवास स्थान बनया जो आज उनकी बैठक के नाम से मशहूर है। उन्होंने वृन्दावन और गिरिराज में रहकर भगवान श्रीकृष्ण की प्रेम में डूबकर अराधना की। कई बार भगवान श्री कृष्ण ने इन्हें दर्शन दिया। इनकी अष्टयाम-सेवा बहुत ही सुंदर मानी गयी। भगवान श्रीकृष्ण ने इन्हें वात्सल्यभाव से उपासना करने का प्रचार करने की आज्ञा दी।

आचार्य जी की भक्त पर कृपा

आचार्य के जीवन में बहुत सारी घटनाएं हुयी जिन्होंने सबको हैरान कर दिया। एक बार एक व्यक्ति शालिग्रामशिला और प्रतिमा की एक साथ पूजा कर रहा था। उसके मन में शालिग्राम उच्च और प्रतिमा निम्न थी। आचार्य के समझाने पर वह बिगड़ गया और शालिग्राम को प्रतिमा की छाती पर रखकर सुला दिया। सुबह उठने पर देखा की शालिग्राम चूर-चूर हो गया। उसे अपनी गलती का अहसास हुआ और आचार्य से क्षमा मांगी। वल्लभाचार्य जी ने उसपर कृपा की और शालिग्राम पहले के समान हो गया। इस दौरान उन्होंने बहुत सारे ग्रंथों की रचना की जिसमें से कई तो अभीतक अप्रकाशित हैं। 

पौराणिक ग्रंथों के अनुसार एक बार श्रीकृष्ण ने वल्लभाचार्य जी से उनका पुत्र बनने की इच्छा प्रकट की जिसके कारण 28 वर्ष की आयु में इन्होंने विवाह किया। श्रीविट्ठल के रूप में खुद भगवान विट्ठल इन्हें पुत्र रूप में मिले। श्री चैतन्यमहाप्रभु के समय में ही श्री वल्लभाचार्य थे और इन दोनों की मुलाकात भी हुयी थी।

भगवान के परम भक्तों में शामिल श्रीवल्लभाचार्य का जीवन सदा ही लोगों के लिए भक्ति का स्त्रोत रहा। उनकी प्रेरणा से बहुत सारे लोग भागवत मार्ग में आये। दिव्यता के साथ ही इनका जन्म हुआ था और भागवत धाम में गमन भी उसी रूप से हुआ।
 
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