शिव पुराण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि पर्वतराज हिमालय ने शिव से एक विनती की। उन्होंने अपने बेटी को उनकी सेवा में रखने की इच्छा जाहिर कि जिसे शिव ने अस्वीकार कर दिया। इससे हिमवान थोड़े दुःखी हो गए लेकिन माता भवानी से शिव के साथ दार्शनिक संवाद किया जिससे शिव प्रसन्न हो गए और हिमवान से कहा कि आप रोज अपनी पुत्री के साथ मेरी सेवा करने के लिए आ सकते हैं। शंकर की आज्ञा पाकर हिमवान् अपने घर लौट गये। वे गिरिजा के साथ प्रतिदिन उनके दर्शन के लिये आते थे। काली अपने पिता के बिना भी दोनों सखियों के साथ नित्य शंकरजी के पास जातीं और भक्तिपूर्वक उनकी सेवा में लगी रहतीं।
नन्दीश्वर आदि कोई भी गण उन्हें रोकता नहीं था।महेश्वरके आदेशसे ही ऐसा होता था। प्रत्येक गण पवित्रतापूर्वक रहकर उनकी आज्ञा का पालन करता था। इन्द्रियातीत भगवान् शंकर ने गिरिराज के कहने से उनका गौरव मानकर उनकी पुत्री को अपने पास रहकर सेवा करने के लिये स्वीकार कर लिया। काली अपनी दो सखियों के साथ चन्द्रशेखर महादेवजी की सेवा के लिये प्रतिदिन आती-जाती रहती थीं। वे भगवान् शंकर के चरण धोकर उस चरणामृत का पान करती थीं।
ध्यान-परायण शंकर की सेवा में लगी हुई शिवा का महान् समय व्यतीत हो गया, तो भी वे अपनी इन्द्रियों को संयम में रखकर पूर्ववत् उनकी सेवा करती रहीं। महादेवजी ने जब फिर उन्हें अपनी सेवा में नित्य तत्पर देखा, तब वे दया से द्रवित हो उठे और इस प्रकार विचार करने लगे, ‘यह काली जब तपश्चर्याव्रत करेगी और इसमें गर्व का बीज नहीं रह जायगा, तभी मैं इसका पाणिग्रहण करूँगा।
ऐसा विचार करके महालीला करने वाले महायोगीश्वर भगवान् भूतनाथ तत्काल ध्यान में स्थित हो गये। परमात्मा शिव जब ध्यान में लग गये, तब उनके हृदय में दूसरी कोई चिन्ता नहीं रह गयी। काली प्रतिदिन महात्मा शिव के रूप का निरन्तर चिन्तन करती हुई उत्तम भक्तिभाव से उनकी सेवा में लगी रही। ध्यान परायण भगवान हर शुद्धभाव से वहाँ रहती हुई काली को नित्य देखते थे। फिर भी पूर्व चिन्ता को भुलाकर उन्हें देखते हुए भी नहीं देखते है।
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