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Bhagavad Gita Part 136: संसार के लोग क्यों हो जाते है मोहग्रस्त? भगवान श्री कृष्ण ने दिया उत्तर

जीवांजलि धार्मिक डेस्क Published by: निधि Updated Thu, 16 May 2024 10:42 AM IST
सार

Bhagavad Gita Part 136: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, श्री कृष्ण अर्जुन को यह समझाते है कि योगमाया की शक्ति आखिर क्या है ! कैसे श्री कृष्ण को भूतकाल, भविष्यकाल का ज्ञान है। 
 

Bhagavad Gita Part 136
Bhagavad Gita Part 136- फोटो : JEEVANJALI

विस्तार

Bhagavad Gita Part 136: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, श्री कृष्ण अर्जुन को यह समझाते है कि योगमाया की शक्ति आखिर क्या है ! कैसे श्री कृष्ण को भूतकाल, भविष्यकाल का ज्ञान है। 
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इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत, सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ( अध्याय 7 श्लोक 27 )

इच्छा-इच्छा; द्वेष घृणा; समुत्थेन-उत्पन्न होने से; द्वन्द्व-द्वन्द्व से; मोहेन-मोह से; भारत-भरतवंशी, अर्जुन; सर्व-सभी; भूतानि-जीव; सम्मोहम्-मोह से; सर्गे–जन्म लेकर; यान्ति–जाते हैं; परन्तप-अर्जुन, शत्रुओं का विजेता।

अर्थ - इच्छा तथा घृणा के द्वन्द मोह से उत्पन्न होते हैं। हे शत्रु विजेता ! भौतिक जगत में समस्त जीव जन्म से इन्हीं से मोहग्रस्त होते हैं।
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व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण अर्जुन को समझा रहे है कि कैसे इस संसार में जीव जन्म लेते ही मोह ग्रस्त हो जाता है। आप किसी भी इंसान को देखिए ! या तो वो किसी से बहुत प्रेम करता है या किसी से बहुत नफरत करता है। संसार में ऐसा कौनसा व्यक्ति है जो द्वन्द से नहीं जूझता है? ऐसा कौन जीव है जो ये कह दे कि उसे मानसिक शांति प्राप्त हो गई है? 

दरअसल किसी भी चीज की इच्छा की कामना करना और उसे प्राप्त न होने के बाद उसी से नफरत कर बैठना यह मोह का लक्षण है। और श्री कृष्ण अर्जुन को कहते है कि इस संसार में जो जीवात्मा है वह पैदा होने के बाद से ही इस सबमे उलझ जाती है। ये तेरा है ! ये मेरा है ! मुझे ये हासिल करना है ! मुझे उससे नफरत है ! दरअसल ये सब इसी कारण है। कृष्ण इस बात को समझा चुके है कि व्यक्ति की इच्छाओं का कोई अंत नहीं है इसलिए कामना रहित कर्म ही उत्तम है। 

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्। ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ( अध्याय 7 श्लोक 28 )

येषाम् जिसका; तु–लेकिन; अन्त-गतम्-पूर्ण विनाशः पापम्-पाप; जनानाम्-जीवो का; पुण्य-पवित्र; कर्मणाम्-गतिविधियाँ; ते–वे; द्वन्द्व-द्विविधताएँ; मोह-मोह; निर्मुक्ताः-से मुक्त; भजन्ते-आराधना करना; माम्-मुझको; दृढ-व्रताः-दृढसंकल्प।

अर्थ - पुण्य कर्मों में संलग्न रहने से जिन व्यक्तियों के पाप नष्ट हो जाते हैं, वे मोह के द्वन्द्वों से मुक्त हो जाते हैं। ऐसे लोग दृढ़ संकल्प के साथ मेरी पूजा करते हैं। 

व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण पिछले श्लोक की बात को आगे बढ़ा रहे है। अब वो यह समझाते है कि ऐसा कौन है जिसका मोह नष्ट हो जाता है? पहले के अध्याय में भगवान् इस चीज को समझा चुके है कि भक्ति जागृत मनुष्य को प्राप्त होती है। इसलिए एक ऐसा व्यक्ति जिसकी बुद्धि शुद्ध हो गई है ! जो सदैव पुण्य कर्म करता है और उसे श्री भगवान् के चरणों में ही अर्पित कर देता है ऐसा व्यक्ति निश्चित ही मोह से मुक्त हो जाता है। ऐसे लोग किसी भी परिस्थिति में भगवान् की सेवा करते है। उनकी भक्ति क्षणिक नहीं होती। 

भक्ति न सुख से कम होती है और न दुःख से बढ़ती है। एक साधारण मनुष्य तो जैसे ही सुख आता है भक्ति को भूल जाता है और जब दुःख आता है तो वापिस मंदिर जाकर रोने लग जाता है लेकिन भक्त ऐसा नहीं होता है। संसार में हो रही किसी भी घटना का प्रभाव उसकी बुद्धि पर नहीं आ सकता है। कृष्ण भक्ति के आशीर्वाद से ऐसा व्यक्ति अंत में ईश्वर चरणों में लीन हो जाता है।

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