Valmiki Ramayana: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, रानी कौसल्या ने महाराज दशरथ को बेहद कड़वे वचन कहे जिसे सुनकर वो शोक के मारे मूर्छित हो गए। शोकमग्न हो कुपित हुई श्रीराम माता कौसल्या ने जब राजा दशरथ को इस प्रकार कठोर वचन सुनाया, तब वे दुःखित होकर बड़ी चिन्ता में पड़ गये। चिन्तित होने के कारण राजा की सारी इन्द्रियाँ मोह से आच्छन्न हो गयीं। तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात् शत्रुओं को संताप देने वाले राजा दशरथ को चेत हुआ। चिन्ता में पड़े-पड़े ही उन्हें अपने एक दुष्कर्म का स्मरण हो आया, जो इन शब्दवेधी बाण चलाने वाले नरेश के द्वारा पहले अनजान में बन गया था। दुःखी राजा दशरथ नीचे मुँह किये थर-थर काँपने लगे और कौसल्या को मनाने के लिये हाथ जोड़कर बोले, मैंने ये दोनों हाथ जोड़ लिये हैं। तुम तो दूसरों पर भी सदा वात्सल्य और दया दिखाने वाली हो।
तुम तो सदा धर्म में तत्पर रहनेवाली और लोक में भले-बुरे को समझने वाली हो। यद्यपि तुम भी दुःखित हो तथापि मैं भी महान् दुःख में पड़ा हुआ हूँ, अतः तुम्हें मुझसे कठोर वचन नहीं कहना चाहिये। दुःखी हुए राजा दशरथ के मुख से कहे गये उस करुणाजनक वचन को सुनकर कौसल्या अपने नेत्रों से आँसू बहाने लगीं। वे अधर्म के भय से रो पड़ी और बोली, मैं आपके सामने पृथ्वी पर पड़ी हूँ। आपके चरणों में मस्तक रखकर याचना करती हूँ, आप प्रसन्न हों। यदि आपने उलटे मुझसे ही याचना की, तब तो मैं मारी गयी। मुझसे अपराध हुआ हो तो भी मैं आपसे क्षमा पाने के योग्य हूँ, प्रहार पाने के नहीं। श्रीराम को वन में गये आज पाँच रातें बीत गयीं। मैं यही गिनती रहती हूँ। शोक ने मेरे हर्ष को नष्ट कर दिया है, अतः ये पाँच रात मेरे लिये पाँच वर्षों के समान प्रतीत हुई हैं।
कौसल्या इस प्रकार शुभ वचन कह ही रही थीं कि सूर्य की किरणें मन्द पड़ गयीं और रात्रिकाल आ पहँचा। देवी कौसल्या की इन बातों से राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई। साथ ही वे श्रीराम के शोक से भी पीड़ित थे इस हर्ष और शोक की अवस्था में उन्हें नींद आ गयी। राजा दशरथ दो ही घड़ी के बाद फिर जाग उठे। उस समय उनका हृदय शोक से व्याकुल हो रहा था। वे मन-ही-मन चिन्ता करने लगे। श्रीराम और लक्ष्मण के वन में चले जाने से इन इन्द्रतुल्य तेजस्वी महाराज दशरथ को शोक ने उसी प्रकार धर दबाया था, जैसे राहु का अन्धकार सूर्य को ढक देता है। उस समय श्रीरामचन्द्रजी को वन में गये छठी रात बीत रही थी। जब आधी रात हुई, तब राजा दशरथ को उस पहले के किये हुए दुष्कर्म का स्मरण हुआ।
पुत्रशोक से पीड़ित हुए महाराज ने अपने उस दुष्कर्म को याद करके पुत्रशोक से व्याकुल हुई कौसल्या से कहा, मनुष्य शुभ या अशुभ जो भी कर्म करता है, अपने उसी कर्म के फलस्वरूप सुख या दुःख कर्ता को प्राप्त होते हैं। जो कर्मों का आरम्भ करते समय उनके फलों की गुरुता या लघुता को नहीं जानता, उनसे होने वाले लाभरूपी गुण अथवा हानिरूपी दोष को नहीं समझता, वह मनुष्य बालक कहा जाता है।
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