Bhagavad Gita : भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, मनुष्य यह सोचता है कि उसे लाभ अमुक देवता के द्वारा प्रदान किये जा रहे है लेकिन वास्तव में वो सभी सुख श्री कृष्ण के द्वारा ही प्रदान किए जाते है।
Bhagavad Gita : भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, मनुष्य यह सोचता है कि उसे लाभ अमुक देवता के द्वारा प्रदान किये जा रहे है लेकिन वास्तव में वो सभी सुख श्री कृष्ण के द्वारा ही प्रदान किए जाते है।
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् , देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि (अध्याय 7 श्लोक 23 )
अन्त-वत्-नाशवान; तु-लेकिन; फलम्-फल; तेषाम्-उनके द्वारा; तत्-वह; भवति–होता है; अल्पमेधसाम्-अल्पज्ञों का; देवान्–स्वर्ग के देवता; देव-यज्ञः-देवताओं को पूजने वाले; यान्ति–जाते हैं; मत्–मेरे; भक्ताः-भक्त जन; यान्ति–जाते हैं; माम् मेरे; अपि भी।
अर्थ - किन्तु ऐसे अल्पज्ञानी लोगों को प्राप्त होने वाले फल भी नश्वर होते हैं। जो लोग देवताओं की पूजा करते हैं, वे देव लोकों को जाते हैं जबकि मेरे भक्त मेरे लोक को प्राप्त करते हैं।
व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण यह समझा रहे है कि जब कोई व्यक्ति देवताओं की पूजा करता है तो उनकी प्रेरणा से उसे फल तो प्राप्त हो जाता है लेकिन एक समय के बाद वो सुख नष्ट हो जाते है। यानी कि जो भी भौतिक सुख आपने देवताओं से प्राप्त किया है वो एक समय के बाद आपको छोड़ना पड़ता है या आपसे छीन लिया जाता है। देवताओं को प्रसन्न करके व्यक्ति देवलोक को जाता है लेकिन श्री कृष्ण के जो भक्त वो उनके दिव्य लोक को प्राप्त करते है और उन्हें जन्म मरण के बंधन से मुक्ति मिल जाती है।
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः, परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ( अध्याय 7 श्लोक 24 )
अव्यक्तम्-निराकारव्यक्तिम् साकार स्वरूप; आपन्नम्-प्राप्त हुआ; मन्यन्ते-सोचना; माम्-मुझको; अबुद्धयः-अल्पज्ञानी; परम्-सर्वोच्च; भावम् प्रकृति; अजानन्तः-बिना समझे मम-मेरा; अव्ययम्-अविनाशी; अनुत्तमम् सर्वोत्तम।
अर्थ - बुद्धिहीन मनुष्य सोचते हैं कि मैं परमेश्वर पहले निराकार था और अब मैंने यह साकार व्यक्तित्त्व धारण किया है, वे मेरे इस अविनाशी और सर्वोत्तम दिव्य स्वरूप की प्रकृत्ति को नहीं जान पाते।
व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण अपने निराकार और साकार रूप के बारे में चर्चा कर रहे है। आम तौर पर लोगों में इस चीज को लेकर बहस हो जाती है कि उनका कौनसा रूप उत्तम है ? लेकिन वास्तव में ईश्वर निराकार और साकार दोनों रूप में विराजते है। उनका निराकार स्वरुप बेहद शक्तिशाली होता है क्योंकि उससे पुरे जगत की उत्पत्ति होती है। साकार रूप में उनकी लीला प्रकट होती है।
ईश्वर का दिव्य स्वरुप सदैव नवीन रहता है लेकिन उनका जो साकार रूप है उनमे उनकी शक्ति प्रकट होती है और एक समय के बाद उन्हें उस स्वरुप का त्याग करना पड़ जाता है। जैसे राम ने कई हजार वर्षों तक अयोध्या पर राज्य किया लेकिन एक समय आने पर वो सरयू नदी में समा गए और साकार रूप अप्रकट हो गया।
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