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Bhagavad Gita Part 141: भगवान श्री कृष्ण को कैसे प्राप्त किया जा सकता है? कृष्ण ने अर्जुन को बताया ये बड़ा रहस

जीवांजलि धार्मिक डेस्क Published by: निधि Updated Tue, 28 May 2024 02:52 PM IST
सार

Bhagavad Gita Part 141: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, श्री कृष्ण अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए समझाया कि अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ के अर्थ क्या है।

Bhagavad Gita
Bhagavad Gita- फोटो : JEEVANJALI

विस्तार

Bhagavad Gita Part 141: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, श्री कृष्ण अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए समझाया कि अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ के अर्थ क्या है। इसके अलावा कृष्ण ने यह भी कहा कि जो मृत्यु के समय मेरा स्मरण करता है वो मेरा लोक प्राप्त करता है यानी कि मुझे प्राप्त हो जाता है। 
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यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्। तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ( अध्याय 8 श्लोक 6 )

यम्-यम्-जिसका; वा-या; अपि-किसी भी; स्मरन्-स्मरण कर; भावम्-स्मरण; त्यजति-त्याग करना अन्ते–अन्तकाल में; कलेवरम्-शरीर को; तम्-तम्-उस उसको; एव–निश्चय ही; एति-प्राप्त करता है; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन,; सदा-सदैव; तत्-उस; भाव-भावितः-चिन्तन में लीन।

अर्थ - हे कुन्ती पुत्र ! मृत्यु के समय शरीर छोड़ते हुए मनुष्य जिसका स्मरण करता है वह उसी गति को प्राप्त होता है क्योंकि वह सदैव ऐसे चिन्तन में लीन रहता है।
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व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण अर्जुन को समझा रहे है कि जब व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त करता है तो उस समय उसकी चेतना जिस प्रकार की होती है वहीं उसकी गति हो जाती है। जब व्यक्ति की मौत नजदीक आती है तो वह उसी का स्मरण करता है जो जीवन भर उसने किया होता है। हालांकि यह मान लेना की भगवान् का नाम अंतिम समय में लिया जा सकता है यह पूर्ण सत्य भी नहीं है। जब भी कोई व्यक्ति जीवन भर ईश्वर की भक्ति करेगा तब जाकर उसके अवचेतन में श्री कृष्ण विराजमान होते है और अंत समय में वो ईश्वर का नाम लेता है। अगर कोई व्यक्ति जीवन भर बुरी संगत करेगा तो जाहिर सी बात है कि मृत्यु के समय वो ईश्वर का नाम नहीं ले सकता है। 

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च। मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ( अध्याय 8 श्लोक 7 )

तस्मात् इसलिए; सर्वेषु-सब में; कालेषु-कालों में; माम्-मुझको; अनुस्मर-स्मरण करना; युध्य युद्ध करना; च-भी; मयि–मुझमें; अर्पित-समर्पित; मनः-मन, बुद्धि:-बुद्धि; माम्-मुझको; एव-निश्चय ही; एष्यसि–प्राप्त करोगे; असंशयः-सन्देह रहित।

अर्थ -  इसलिए सदा मेरा स्मरण करो और युद्ध लड़ने के अपने कर्त्तव्य का भी पालन करो, अपना मन और बुद्धि मुझे समर्पित करो तब तुम निश्चित रूप से मुझे पा लोगे, इसमें कोई संदेह नहीं है। 

व्याख्या -  इस श्लोक में श्री कृष्ण कर्म योग को और अच्छे तरीके से प्रस्तुत करते है। कृष्ण कहते है कि शरीर से सांसारिक कर्म करने चाहिए और मन को सदैव ईश्वर में रखना चाहिए। हम पिछले अध्यायों में यह चीज समझ चुके है कि मन ही मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है और कर्म योग को संपन्न करने के लिए मन को एकाग्र करना बेहद ज़रूरी है। ऐसा नहीं करेंगे तो लोभ, ईर्ष्या और द्वेष आपका नाश कर देंगे। इसलिए कृष्ण कहते है कि मन और बुद्धि को सदैव मुझमे लगाओ जिसके कारण सांसारिक वासना तुम पर हावी नहीं होगी। कृष्ण यह समझा चुके है कि सांसारिक कर्तव्य का पालन शरीर के द्वारा ही किया जाता है ऐसे में तुम अपने कर्म से विमुख नहीं हो सकते। सिर्फ कर्म को त्याग देने से भक्ति नहीं आती बल्कि बिना आसक्ति के कर्म करने से भक्ति आती है

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