मंगलवार के दिन हनुमान जी के साथ भगवान राम की पूजा करने से व्यक्ति को सभी तरह के कष्टों से मुक्ति मिलती है। साथ ही मान-सम्मान में भी वृद्धि होती है। श्री राम स्तोत्र का पाठ करने से यश और कीर्ति की भी प्राप्ति होती है। इस स्तोत्र का पाठ करने से चरित्र के प्रतीक भगवान श्री राम प्रसन्न होते हैं। उनकी कृपा से शारीरिक और मानसिक कष्ट भी दूर होते हैं। जो भक्त पूरी एकाग्रता के साथ जटायु द्वारा रचित श्री राम स्तोत्र का श्रवण या पाठ करता है, उसे सभी तरह के कष्टों से मुक्ति मिलती है।
सबसे पहले मंगलवार के दिन स्नान करें। इसके बाद हनुमान जी का ध्यान करते हुए व्रत का संकल्प लें। साथ ही इस दिन लाल या नारंगी रंग के कपड़े पहनें। इसके बाद घर के ईशान कोण में एक चौकी रखें, उस पर बजरंगी की मूर्ति या तस्वीर स्थापित करें। पूजा के दौरान हनुमान जी को सिंदूर में चमेली का तेल चढ़ाएं, साथ ही हनुमान जी को लाल चोला भी चढ़ाएं। इसके साथ ही बजरंगबली जी को लाल रंग के फूल, नारियल, गुड़, चना, पान आदि अर्पित करें।
ॐ हं हनुमते नम:.'
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नम...
|| जटायुकृतं रामस्तोत्रम् || (Jatayu Krit Shri Ram Stotra)
जटायुरुवाच
अगणितगुणमप्रमेयमाद्यं सकलजगत्स्थितिसंयमादिहेतुम् ।
उपरमपरमं परात्मभूतं सततमहं प्रणतोऽस्मि रामचन्द्रम् ॥
निरवधिसुखमिन्दिराकटाक्षं क्षपितसुरेन्द्रचतुर्मुखादिदुःखम् ।
नरवरमनिशं नतोऽस्मि रामं वरदमहं वरचापबाणहस्तम् ॥
त्रिभुवनकमनीयरूपमीड्यं रविशतभासुरमीहितप्रदानम् ।
शरणदमनिशं सुरागमूले कृतनिलयं रघुनन्दनं प्रपद्ये ॥
भवविपिनदवाग्निनामधेयं भवमुखदैवतदैवतं दयालुम् ।
दनुजपतिसहस्रकोटिनाशं रवितनयासदृशं हरिं प्रपद्ये ॥
अविरतभवभावनातिदूरं भवविमुखैर्मुनिभिस्सदैव दृश्यम् ।
भवजलधिसुतारणाङ्घ्रिपोतं शरणमहं रघुनन्दनं प्रपद्ये ॥
गिरिशगिरिसुतामनोनिवासं गिरिवरधारिणमीहिताभिरामम् ।
सुरवरदनुजेन्द्रसेविताङ्घ्रिं सुरवरदं रघुनायकं प्रपद्ये ॥
परधनपरदारवर्जितानां परगुणभूतिषु तुष्टमानसानाम् ।
परहितनिरतात्मनां सुसेव्यं रघुवरमम्बुजलोचनं प्रपद्ये ॥
स्मितरुचिरविकासिताननाब्जमतिसुलभं सुरराजनीलनीलम्।
सितजलरुहचारुनेत्रशोभं रघुपतिमीशगुरोर्गुरुं प्रपद्ये ॥
हरिकमलजशंभुरूपभेदात्त्वमिह विभासि गुणत्रयानुवृत्तः ।
रविरिव जलपूरितोदपात्रेष्वमरपतिस्तुतिपात्रमीशमीडे ॥
रतिपतिशतकोटिसुन्दराङ्गं शतपथगोचरभावनाविदूरम् ।
यतिपतिहृदये सदा विभातं रघुपतिमार्तिहरं प्रभुं प्रपद्ये ॥
इत्येवं स्तुवतस्तस्य प्रसन्नोऽभूद्रघूत्तमः ।
उवाच गच्छ भद्रं ते मम विष्णोः परं पदम् ॥
शृणोति य इदं स्तोत्रं लिखेद्वा नियतः पठेत् ।
स याति मम सारूप्यं मरणे मत्स्मृतिं लभेत् ॥
इति राघवभाषितं तदा श्रुतवान् हर्षसमाकुलो द्विजः।
रघुनन्दनसाम्यमास्थितः प्रययौ ब्रह्मसुपूजितं पदम् ॥
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