Valmiki Ramayana: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि श्री राम मंत्री सुमन्त्र के साथ माता कैकेयी के महल में प्रवेश करते हैं। महल में जाकर श्रीराम ने पिता को कैकेयी के साथ एक सुन्दर आसन पर बैठे देखा। वे विषाद में डूबे हुए थे, उनका मुँह सूख गया था और वे बड़े दयनीय दिखायी देते थे। निकट पहुँचने पर श्रीराम ने विनीत भाव से पहले अपने पिता के चरणों में प्रणाम किया; उसके बाद बड़ी सावधानी के साथ उन्होंने कैकेयी के चरणों में भी मस्तक झुकाया। उस समय दीन दशा में पड़े हुए राजा दशरथ एक बार ‘राम !’ ऐसा कहकर चुप हो गये। उनके नेत्रों में आँसू भर आये, अतः वे श्रीराम की ओर न तो देख सके और न उनसे कोई बात ही कर सके। राजा का वह अभूतपूर्व भयंकर रूप देखकर श्रीराम को भी भय हो गया, मानो उन्होंने पैर से किसी सर्प को छू दिया हो।
राजा का वह शोक सम्भावना से परे था। इस शोक का क्या कारण है? यह सोचते हुए श्रीरामचन्द्रजी पूर्णिमा के समुद्र की भाँति अत्यन्त विक्षुब्ध हो उठे। पिता के हित में तत्पर रहने वाले परम चतुर श्रीराम सोचने लगे कि ‘आज ही ऐसी क्या बात हो गयी’ जिससे महाराज मुझसे प्रसन्न होकर बोलते नहीं हैं।' और दिन तो पिताजी कुपित होने पर भी मुझे देखते ही प्रसन्न हो जाते थे, आज मेरी ओर दृष्टिपात करके इन्हें क्लेश क्यों हो रहा है? यह सब सोचकर श्रीराम दीन-से हो गये, शोक से कातर हो उठे, विषाद के कारण उनके मुख की कान्ति फीकी पड़ गयी। वे कैकेयी को प्रणाम करके उसी से पूछने लगे, मुझसे अनजान में कोई अपराध तो नहीं हो गया, जिससे पिताजी मुझ पर नाराज हो गये हैं। तुम यह बात मुझे बताओ और तुम्हीं इन्हें मना दो।
ये तो सदा मुझे प्यार करते थे, आज इनका मन अप्रसन्न क्यों हो गया? देखता हूँ, ये आज मुझसे बोलते तक नहीं हैं, इनके मुख पर विषाद छा रहा है और ये अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं। प्रियदर्शन कुमार भरत, महाबली शत्रुघ्न अथवा मेरी माताओं का तो कोई अमङ्गल नहीं हुआ है? महाराज को असंतुष्ट करके अथवा इनकी आज्ञा न मानकर इन्हें कुपित कर देने पर मैं दो घड़ी भी जीवित रहना नहीं चाहूँगा। महात्मा श्रीराम के इस प्रकार पूछने पर अत्यन्त निर्लज्ज कैकेयी बड़ी ढिठाई के साथ अपने मतलब की बात इस प्रकार बोली- महाराज कुपित नहीं हैं और न इन्हें कोई कष्ट ही हुआ है। इनके मन में कोई बात है, जिसे तुम्हारे डर से ये कह नहीं पा रहे हैं।
तुम इनके प्रिय हो, तुमसे कोई अप्रिय बात कहने के लिये इनकी जबान नहीं खुलती। किंतु इन्होंने जिस कार्य के लिये मेरे सामने प्रतिज्ञा की है, उसका तुम्हें अवश्य पालन करना चाहिये। यदि राजा जिस बात को कहना चाहते हैं, वह शुभ हो या अशुभ, तुम सर्वथा उसका पालन करो तो मैं सारी बात पुनः तुमसे कहूँगी। कैकेयी की कही हुई यह बात सुनकर श्रीराम के मन में बड़ी व्यथा हुई। वो बोले, मैं महाराज के कहने से आग में भी कूद सकता हूँ, तीव्र विष का भी भक्षण कर सकता हूँ और समुद्र में भी गिर सकता हूँ। महाराज मेरे गुरु, पिता और हितैषी हैं, मैं उनकी आज्ञा पाकर क्या नहीं कर सकता? इसलिये देवि ! राजा को जो अभीष्ट है, वह बात मुझे बताओ। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ, उसे पूर्ण करूँगा। राम दो तरह की बात नहीं करता है।