वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि रानी कैकेयी ने राजा दशरथ को दो टूक शब्दों में कहा कि या तो श्री राम को वन भेज दे वरना मैं मृत्यु का वरन वरण कर लूंगी। इसके बाद राजा ने श्री राम को देखने की इच्छा व्यक्त की। निर्मल सूर्योदय होने पर दिन में जब पुष्यनक्षत्र का योग आया तथा श्रीराम के जन्म का कर्क लग्न उपस्थित हुआ, उस समय श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने श्रीराम के अभिषेक के लिये सारी सामग्री एकत्र करके उसे अँचाकर रख दिया। जल से भरे हुए सोने के कलश, भलीभाँति सजाया हुआ भद्रपीठ, चमकीलेव्याघ्र चर्म से अच्छी तरह आवृत रथ, गङ्गा-यमुनाके पवित्र सङ्गम से लाया हुआ जल-ये सब वस्तुएँ एकत्र कर ली गयी थीं।
स्तुति पाठ करने वाले वन्दी तथा अन्य मागध आदि भी उपस्थित थे। इक्ष्वाकुवंशी राजाओं के राज्यमें जैसी अभिषेक सामग्री का संग्रह होना चाहिये, राजकुमार के अभिषेक की वैसी ही सामग्री साथ लेकर वे सब लोग महाराज दशरथ की आज्ञा के अनुसार वहाँ उनके दर्शन के लिये एकत्र हुए थे। राजा को द्वार पर न देखकर वे कहने लगे , कौन महाराज के पास जाकर हमारे आगमन की सूचना देगा। हम महाराज को यहाँ नहीं देखते हैं। सूर्योदय हो गया है और बुद्धिमान् श्रीराम के यौवराज्याभिषेक की सारी सामग्री जुट गयी है। उसी समय राजा द्वारा सम्मानित सुमन्त्र ने वहाँ खड़े हुए उन समस्त भूपतियों से यह बात कही, मैं महाराज की आज्ञा से श्रीराम को बुलाने के लिये तुरंत जा रहा हूँ।
मन्त्रणा करने में कुशल सूत सुमन्त्र इसके बाद राजा से मिलते है। राजा दशरथ ने उनसे कहा, यह जो मैंने तुमसे कहा था, उसका पालन क्यों नहीं हुआ? ऐसा कौन सा कारण है, जिससे मेरी आज्ञा का उल्लङ्घन किया जा रहा है? मैं सोया नहीं हूँ। तुम श्रीराम को शीघ्र यहाँ बुला लाओ। इस प्रकार राजा दशरथ ने जब सूत को फिर उपदेश दिया, तब वे राजा की वह आज्ञा सुनकर सिर झुकाकर उसका सम्मान करते हुए राजभवन से बाहर निकल गये। वे मन-ही-मन अपना महान् प्रिय हुआ मानने लगे। तदनन्तर सुमन्त्र को श्रीराम का सुन्दर भवन दिखायी दिया, जो कैलासपर्वत के समान श्वेत प्रभा से प्रकाशित हो रहा था।
जैसे मगर प्रचुर रत्नों से भरे हुए समुद्र में बेरोकटोक प्रवेश करता है, उसी प्रकार सारथि सुमन्त्र ने पर्वत-शिखर पर आरूढ़ हुए अविचल मेघ के समान शोभायमान महान् विमान के सदृश सुन्दर गृहों से संयुक्त तथा प्रचुर रत्न-भण्डार से भरपूर उस महल में बिना किसी रोक-टोक के प्रवेश किया। राजसेवा में अत्यन्त कुशल तथा विनीत हृदयवाले सूतपुत्र सुमन्त्र ने श्री राम से मिलने की इच्छा प्रकट की। उस समय श्रीराम अपनी धर्मपत्नी सीता के साथ विराजमान थे। उन सेवकों ने शीघ्र ही उन्हें सुमन्त्र का संदेश सुना दिया। द्वार रक्षकों द्वारा दी हुई सूचना पाकर श्रीराम ने पिता की प्रसन्नता के लिये उनके अन्तरङ्ग सेवक सुमन्त्र को वहीं अन्तःपुर में बुलवा लिया।
विनय के ज्ञाता वन्दी सुमन्त्र ने तपते हुए सूर्य की भाँति अपने नित्य प्रकाश से सम्पन्न रहकर अधिक प्रकाशित होने वाले वरदायक श्रीराम को विनीतभाव से प्रणाम किया।