Valmiki Ramayana: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि राजा दशरथ भरत को राजा बनाने के लिए तैयार हो जाते है लेकिन राम के वनवास जाने का वचन देने से वो कतराते है। वो कैकेयी से बोले, मैं हाथ जोड़ता हूँ और तेरे पैरों पड़ता हूँ। तू श्रीराम को शरण दे, जिससे यहाँ मुझे पाप न लगे। महाराज दशरथ इस प्रकार दुःख से संतप्त होकर विलाप कर रहे थे। उनकी चेतना बार-बार लुप्त हो जाती थी। उनके मस्तिष्क में चक्कर आ रहा था और वे शोकमग्न हो उस शोक सागर से शीघ्र पार होने के लिये बारंबार अनुनय-विनय कर रहे थे, तो भी कैकेयी का हृदय नहीं पिघला। वह और भी भीषण रूप धारण करके अत्यन्त कठोर वाणी में उन्हें इस प्रकार उत्तर देने लगी।
वो राजा से बोली, यदि दो वरदान देकर आप फिर उनके लिये पश्चात्ताप करते हैं तो वीर नरेश्वर ! इस भूमण्डल में आप अपनी धार्मिकता का ढिंढोरा कैसे पीट सकेंगे? जब बहुत-से राजर्षि एकत्र होकर आपके साथ मुझे दिये हुए वरदान के विषय में बातचीत करेंगे, उस समय वहाँ आप उन्हें क्या उत्तर देंगे?आज ही वरदान देकर यदि आप फिर उससे विपरीत बात कहेंगे तो अपने कुल के राजाओं के माथे कलंक का टीका लगायेंगे। अब धर्म हो या अधर्म, झूठ हो या सच, जिस बात के लिये आपने मुझसे प्रतिज्ञा कर ली है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। यदि श्रीराम का राज्याभिषेक होगा तो मैं आपके सामने आपके देखते-देखते आज ही बहुत-सा विष पीकर मर जाऊँगी।
यदि मैं एक दिन भी राम माता कौसल्या को राजमाता होने के नाते दूसरे लोगों से अपने को हाथ जोड़वाती देख लूँगी तो उस समय मैं अपने लिये मर जाना ही अच्छा समझूगी। मैं आपके सामने अपनी और भरत की शपथ खाकर कहती हूँ कि श्रीराम को इस देश से निकाल देने के सिवा दूसरे किसी वर से मुझे संतोष नहीं होगा। इतना कहकर कैकेयी चुप हो गयी। राजा बहुत रोये-गिड़गिड़ाये; किंतु उसने उनकी किसी बात का जवाब नहीं दिया। ‘श्रीराम का वनवास हो और भरत का राज्याभिषेक’ कैकेयी के मुख से यह परम अमङ्गलकारी वचन सुनकर राजा की सारी इन्द्रियाँ व्याकुल हो उठीं। वे एक मुहूर्त तक कैकेयी से कुछ न बोले। उस अप्रिय वचन बोलने वाली प्यारी रानी की ओर केवल एकटक दृष्टि से देखते रहे।
मन को अप्रिय लगने वाली कैकेयी की वह वज्र के समान कठोर तथा दुःख-शोकमयी वाणी सुनकर राजा को बड़ा दुःख हुआ उनकी सुख-शान्ति छिन गयी। देवी कैकेयी के उस घोर निश्चय और किये हुए शपथ की ओर ध्यान जाते ही वे ‘हा राम !’ कहकर लंबी साँस खींचते हुए कटे वृक्ष की भाँति गिर पड़े। उनकी चेतना लुप्त-सी हो गयी। वे उन्मादग्रस्त-से प्रतीत होने लगे। उनकी प्रकृति विपरीत-सी हो गयी। वे रोगी-से जान पड़ते थे। इस प्रकार भूपाल दशरथ मन्त्र से जिसका तेज हर लिया गया हो उस सर्प के समान निश्चेष्ट हो गये। तदनन्तर उन्होंने दीन और आतुर वाणी में कैकेयी से इस प्रकार कहा, तुझे अनर्थ ही अर्थ-सा प्रतीत हो रहा है, किसने तुझे इसका उपदेश दिया है?