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Valmiki Ramayana Part 148: ऋषि वसिष्ठ की किस बात पर विलाप करने लगे राजकुमार भरत! जानें आगे क्या हुआ

जीवांजलि धार्मिक डेस्क Published by: निधि Updated Fri, 07 Jun 2024 05:21 PM IST
सार

Valmiki Ramayana: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि राम जी के छोटे भाई भरत ने सबको बुलाकर यह आदेश दिया कि श्री राम और लक्ष्मण जी को हम वन से वापिस ले आएंगे।

Valmiki Ramayana
Valmiki Ramayana- फोटो : JEEVANJALI

विस्तार

Valmiki Ramayana: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि राम जी के छोटे भाई भरत ने सबको बुलाकर यह आदेश दिया कि श्री राम और लक्ष्मण जी को हम वन से वापिस ले आएंगे और उन्हें ही राजा बना देंगे। अयोध्या की प्रजा को उनका यह मत भा गया। इसके बाद, मार्ग ठीक करने के लिये एक विशाल जन समुदाय बड़े हर्ष के साथ वनप्रदेश की ओर अग्रसर हुआ, जो पूर्णिमा के दिन उमड़े हुए समुद्र के महान् वेग की भाँति शोभा पा रहा था। सेना का वह मार्ग देवताओं के मार्ग की भाँति अधिक शोभा पाने लगा। उसकी भूमि पर चूनासुर्थी और कंकरीट बिछाकर उसे कूट-पीटकर पक्का कर दिया गया था। उसके किनारे-किनारे फूलों से सुशोभित वृक्ष लगाये गये थे। वहाँ के वृक्षों पर मतवाले पक्षी चहक रहे थे। 
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सारे मार्ग को पताकाओं से सजा दिया गया था, उसपर चन्दन मिश्रित जल का छिड़काव किया गया था तथा अनेक प्रकार के फूलों से वह सड़क सजायी गयी थी। नाना प्रकार के वृक्षों और वनों से सुशोभित, शीतल निर्मल जल से भरी हुई और बड़े-बड़े मत्स्यों से व्याप्त गङ्गा के किनारे तक बना हुआ वह रमणीय राजमार्ग उस समय बड़ी शोभा पा रहा था। अच्छे कारीगरों ने उसका निर्माण किया था। रात्रि के समय वह चन्द्रमा और तारागणों से मण्डित निर्मल आकाश के समान सुशोभित होता था। 

एक दिन धर्म के ज्ञाता पुरोहित वसिष्ठ जी ने राजा की सम्पूर्ण प्रकृतियों को उपस्थित देख भरत से कहा, राजा दशरथ यह धन-धान्य से परिपूर्ण समृद्धिशालिनी पृथिवी तुम्हें देकर स्वयं धर्म का आचरण करते हुए स्वर्गवासी हुए हैं। सत्यपूर्ण बर्ताव करने वाले श्रीरामचन्द्र जी ने सत्पुरुषों के धर्म का विचार करके पिता की आज्ञा का उसी प्रकार उल्लङ्घन नहीं किया, जैसे उदित चन्द्रमा अपनी चाँदनी को नहीं छोड़ता है अतः तुम मन्त्रियों को प्रसन्न रखते हुए इसका पालन करो और शीघ्र ही अपना अभिषेक करा लो। जिससे उत्तर, पश्चिम, दक्षिण, पूर्व और अपरान्त देश के निवासी राजा तथा समुद्र में जहाजों द्वारा व्यापार करने वाले व्यवसायी तुम्हें असंख्य रत्न प्रदान करें। 
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यह बात सुनकर धर्मज्ञ भरत शोक में डूब गये और धर्मपालन की इच्छा से उन्होंने मन-ही-मन श्रीराम की शरण ली। नवयुवक भरत उस भरी सभा में आँसू बहाते हुए गद्गद वाणी द्वारा कलहंस के समान मधुर स्वर से विलाप करने लगे। उन्होंने कहा, ‘पाप का आचरण तो नीच पुरुष करते हैं। वह मनुष्य को निश्चय ही नरक में डालने वाला है। यदि श्री रामचन्द्रजी का राज्य लेकर मैं भी पापाचरण करूँ तो संसार में इक्ष्वाकुकुल का कलंक समझा जाऊँगा। मैं श्रीराम का ही अनुसरण करूँगा। मनुष्यों में श्रेष्ठ श्री रघुनाथजी ही इस राज्य के राजा हैं। वे तीनों ही लोकों के राजा होने योग्य हैं।
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