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Valmiki Ramayana Part 145 : भरत ने किया दशरथ का दाह कर्म संस्कार ! द्वारपाल ने मंथरा को पकड़कर किसके हवाले किया

जीवांजलि धार्मिक डेस्क Published by: कोमल Updated Sun, 02 Jun 2024 07:08 AM IST
सार

Valmiki Ramayana Part 145 :  वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, भरत को जब यह पता चला कि उनकी मां के द्वारा ही राम को वनवास दिलवाया गया तो वो क्रोधित हो गए और अपनी मां को फटकारने लगे।

वाल्मीकि रामायण
वाल्मीकि रामायण- फोटो : jeevanjali

विस्तार


Valmiki Ramayana Part 145 :  वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, भरत को जब यह पता चला कि उनकी मां के द्वारा ही राम को वनवास दिलवाया गया तो वो क्रोधित हो गए और अपनी मां को फटकारने लगे। इतना ही नहीं उन्होंने यह भी कहा कि वो जल्द श्री राम को वन से लाएंगे और उन्हें राज्य दे देंगे। इसके बाद, भरत ने मंत्रियों से कहा कि मुझे श्री राम के वनवास का ज्ञान नहीं था ! उस वक्त में यहां नहीं था इसलिए श्रीराम के वनवास और सीता तथा लक्ष्मण के निर्वासन का भी मुझे ज्ञान नहीं है। वहीं शत्रुघ्न और भरत ने दूर से ही देखा कि माता कौसल्या दुःख से व्याकुल और अचेत होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी हैं। 
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यह देखकर उन्हें बड़ा दुःख हुआ और वे दौड़कर उनकी गोदी से लग गये तथा फूट-फूटकर रोने लगे। आर्या मनस्विनी कौसल्या भी दुःख से रो पड़ीं और उन्हें छाती से लगाकर अत्यन्त दुःखित हुई। उन्होंने भरत से कहा कि वो उन्हें भी उसी वन में ले जाए जिस वन में प्रभु श्री राम निवास करते है। तब भरत अनेक प्रकार के शोकों से घिरी हुई और पूर्वोक्त रूप से विलाप करती हुई माता कौसल्या से हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले, जिसके कहने से आर्य श्रीराम को वन में भेजा गया हो, उसको वही पाप लगे, जो समस्त प्राणियों का पुत्र की भाँति पालन करने वाले राजा से द्रोह करने वाले लोगों को लगता है। 

महात्मा भरत भी दुःख से आर्त होकर विलाप कर रहे थे। उनका मन मोह और शोक के वेग से व्याकुल हो गया था। इस प्रकार शोक से संतप्त हुए केकयी कुमार भरत से वक्ताओं में श्रेष्ठ महर्षि वसिष्ठ ने उत्तम वाणी में कहा, तुम्हारा कल्याण हो। यह शोक छोड़ो, क्योंकि इससे कुछ होने-जाने वाला नहीं है। अब समयोचित कर्तव्य पर ध्यान दो। राजा दशरथ के शव को दाहसंस्कार के लिये ले चलने का उत्तम प्रबन्ध करो। वसिष्ठजी का वचन सुनकर धर्मज्ञ भरत ने पृथ्वी पर पड़कर उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम किया और मन्त्रियों द्वारा पिता के सम्पूर्ण प्रेतकर्म का प्रबन्ध करवाया। 
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भरत के साथ रानियों, मन्त्रियों और पुरोहितों ने भी राजा के लिये जलाञ्जलि दी, फिर सब-के-सब नेत्रों से आँसू बहाते हुए नगर में आये और दस दिनों तक भूमि पर शयन करते हुए उन्होंने बड़े दुःख से अपना समय व्यतीत किया। तदनन्तर दशाह व्यतीत हो जाने पर राजकुमार भरत ने ग्यारहवें दिन आत्मशुद्धि के लिये स्नान और एकादशाह श्राद्ध का अनुष्ठान किया, फिर बारहवाँ दिन आने पर उन्होंने अन्य श्राद्ध कर्म भी पूर्ण किए। तेरहवें दिन का कार्य पूर्ण करके शत्रुघ्न, भरत से वार्तापाल कर रहे थे उसी समय मंथरा वहां आ गई।

 उसके अङ्गों में उत्तमोत्तम चन्दन का लेप लगा हुआ था तथा वह राजरानियों के पहनने योग्य विविध वस्त्र धारण करके भाँति-भाँति के आभूषणों से सज-धजकर वहाँ आयी थी। वही सारी बुराइयों की जड़ थी। वही श्रीराम के वनवासरूपी पाप का मूल कारण थी। उस पर दृष्टि पड़ते ही द्वारपाल ने उसे पकड़ लिया और बड़ी निर्दयता के साथ घसीट लाकर शत्रुघ्न के हाथ में देते हुए कहा, जिसके कारण श्रीराम को वन में निवास करना पड़ा है और आपलोगों के पिता ने शरीर का परित्याग किया है, वह क्रूर कर्म करने वाली पापिनी यही है। आप इसके साथ जैसा बर्ताव उचित समझें करें।
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