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Valmiki Ramayana Part 135: राजा दशरथ से अनजाने में हुआ एक तपस्वी का वध ! जानिए आगे क्या हुआ

जीवांजलि धार्मिक डेस्क Published by: निधि Updated Tue, 14 May 2024 06:20 PM IST
सार

Valmiki Ramayana Part 135: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि राजा दशरथ जब युवा थे तब उन्होंने शब्द भेदी बाण को गलती से हाथी समझकर एक साधारण मनुष्य पर चला दिया और वो कराहने लगा।

Valmiki Ramayana Part 135
Valmiki Ramayana Part 135- फोटो : JEEVANJALI

विस्तार

Valmiki Ramayana Part 135: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि राजा दशरथ जब युवा थे तब उन्होंने शब्द भेदी बाण को गलती से हाथी समझकर एक साधारण मनुष्य पर चला दिया और वो कराहने लगा। उसने राजा से कहा, पिताजी को यह नहीं मालूम है कि मैं पृथ्वी पर गिरकर मृत्युशय्या पर पड़ा हुआ हूँ।  जैसे वायु आदि के द्वारा तोड़े जाते हुए वृक्ष को कोई दूसरा वृक्ष नहीं बचा सकता, उसी प्रकार मेरे पिता भी मेरी रक्षा नहीं कर सकते। अब तुम्हीं जाकर शीघ्र ही मेरे पिता को यह समाचार सुना दो। यह पगडंडी उधर ही गयी है, जहाँ मेरे पिता का आश्रम है। तुम जाकर उन्हें प्रसन्न करो, जिससे वे कुपित होकर तुम्हें शाप न दें। 
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मेरे शरीर से इस बाण को निकाल दो। यह तीखा बाण मेरे मर्मस्थान को उसी प्रकार पीड़ा दे रहा है, जैसे नदी के जल का वेग उसके कोमल बालुकामय ऊँचे तट को छिन्न-भिन्न कर देता है। ऐसा कहकर सरयू नदी के तट पर उस मुनिपुत्र ने अपने शरीर का त्याग कर दिया। अनजान में यह महान् पाप कर डालने के कारण राजा की सारी इन्द्रियाँ व्याकुल हो रही थीं। उन्होंने आगे कौसल्या से कहा, तदनन्तर उस घड़े को उठाकर मैंने सरयू के उत्तम जल से भरा और उसे लेकर मुनिकुमार के बताये हुए मार्ग से उनके आश्रम पर गया। 

वहाँ पहुँचकर मैंने उनके दुबले, अन्धे और बूढ़े माता-पिता को देखा, जिनका दूसरा कोई सहायक नहीं था। उनकी अवस्था पंख कटे हुए दो पक्षियों के समान थी। वे अपने पुत्र की ही चर्चा करते हुए उसके आने की आशा लगाये बैठे थे। उस चर्चा के कारण उन्हें कुछ परिश्रम या थकावट का अनुभव नहीं होता था। यद्यपि मेरे कारण उनकी वह आशा धूल में मिल चुकी थी तो भी वे उसी के आसरे बैठे थे। अब वे दोनों सर्वथा अनाथ-से हो गये थे। मेरा हृदय पहले से ही शोक के कारण घबराया हुआ था। भय से मेरा होश ठिकाने नहीं था। मुनि के आश्रम पर पहुँचकर मेरा वह शोक और भी अधिक हो गया। 
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उन्होंने मुझे अपना पुत्र समझकर जल माँगा। मेरी जबान लड़खड़ाने लगी। कितने अक्षरों का उच्चारण नहीं हो पाता था। इस प्रकार अस्पष्ट वाणी में मैंने बोलने का प्रयास किया। मैं आपका पुत्र नहीं, दशरथ नाम का एक क्षत्रिय हूँ। मैंने अपने कर्मवश यह ऐसा दुःख पाया है, जिसकी सत्पुरुषों ने सदा निन्दा की है। मैं धनुष-बाण लेकर सरयू के तट पर आया था। मेरे आने का उद्देश्य यह था कि कोई जंगली हिंसक पशु अथवा हाथी घाट पर पानी पीने के लिये आवे तो मैं उसे मारूँ। थोड़ी देर बाद मुझे जल में घड़ा भरने का शब्द सुनायी पड़ा। मैंने समझा कोई हाथी आकर पानी पी रहा है, इसलिये उस पर बाण चला दिया। 

सरयू के तट पर जाकर देखा कि मेरा बाण एक तपस्वी की छाती में लगा है और वे मृतप्राय होकर धरती पर पड़े हैं। उस बाण से उन्हें बड़ी पीड़ा हो रही थी, अतः उस समय उन्हीं के कहने से मैंने सहसा वह बाण उनके मर्म-स्थान से निकाल दिया। बाण निकलने के साथ ही वे तत्काल स्वर्ग सिधार गये। मरते समय उन्होंने आप दोनों पूजनीय अंधे पिता-माता के लिये बड़ा शोक और विलाप किया था। अनजान में मेरे हाथ से आपके पुत्र का वध हो गया है। ऐसी अवस्था मे मेरे प्रति जो शाप या अनुग्रह शेष हो, उसे देने के लिये आप महर्षि मुझ पर प्रसन्न हों।
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