Valmiki Ramayana: वाल्मीकि रामायण के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि श्री राम जब माता कैकेयी के भवन में अपने पिता की दशा देखते है तो वो भयभीत हो जाते है और रानी कैकेयी को वचन पूरा करने की बात कहते है। श्रीराम सरल स्वभाव से युक्त और सत्यवादी थे, उनकी बात सुनकर अनार्या कैकेयी ने अत्यन्त दारुण वचन कहना आरम्भ किया। वो बोली, देवासुर संग्राम में तुम्हारे पिता शत्रुओं के बाणों से बिंध गये थे, उस महासमर में मैंने इनकी रक्षा की थी, उससे प्रसन्न होकर इन्होंने मुझे दो वर दिये थे। उन्हीं में से एक वर के द्वारा तो मैंने महाराज से यह याचना की है कि भरत का राज्याभिषेक हो और दूसरा वर यह माँगा है कि तुम्हें आज ही दण्डकारण्य में भेज दिया जाय। यदि तुम अपने पिता को सत्यप्रतिज्ञ बनाना चाहते हो और अपने को भी सत्यवादी सिद्ध करने की इच्छा रखते हो तो मेरी यह बात सुनो।
तुम पिता की आज्ञा के अधीन रहो, जैसी इन्होंने प्रतिज्ञा की है, उसके अनुसार तुम्हें चौदह वर्षों के लिये वन में प्रवेश करना चाहिये। राजा ने तुम्हारे लिये जो यह अभिषेक का सामान जुटाया है, उस सबके द्वारा यहाँ भरत का अभिषेक किया जाय। और तुम इस अभिषेक को त्यागकर चौदहवर्षों तक दण्डकारण्य में रहते हुए जटा और चीर धारण करो। ऐसा करने से तुम्हारे वियोग का कष्ट सहन करना पड़ेगा, यह सोचकर महाराज करुणा में डूब रहे हैं। इसी शोक से इनका मुख सूख गया है और इन्हें तुम्हारी ओर देखने का साहस नहीं होता। तुम राजा की इस आज्ञा का पालन करो और इनके महान् सत्य की रक्षा करके इन नरेश को संकट से उबार लो।
कैकेयी के इस प्रकार कठोर वचन कहने पर भी श्रीराम के हृदय में शोक नहीं हुआ, परंतु महानुभाव राजा दशरथ पुत्र के भावी वियोगजनित दुःख से संतप्त एवं व्यथित हो उठे। वह अप्रिय तथा मृत्यु के समान कष्टदायक वचन सुनकर भी शत्रुसूदन श्रीराम व्यथित नहीं हुए उन्होंने कैकेयी से इस प्रकार कहा, ऐसा ही हो। मैं महाराज की प्रतिज्ञा का पालन करने के लिये जटा और चीर धारण करके वन में रहने के निमित्त अवश्य यहाँ से चला जाऊँगा। परंतु मैं यह जानना चाहता हूँ कि आज दुर्जय तथा शत्रुओं का दमन करने वाले महाराज मुझसे पहले की तरह प्रसन्नतापूर्वक बोलते क्यों नहीं हैं? राजा मेरे हितैषी, गुरु, पिता और कृतज्ञ हैं। इनकी आज्ञा होने पर मैं इनका कौन-सा ऐसा प्रिय कार्य है, जिसे निःशङ्क होकर न कर सकूँ?
श्रीराम की वह बात सुनकर कैकेयी बहुत प्रसन्न हुई। उसे विश्वास हो गया कि ये वन को चले जायेंगे। अतः श्रीराम को जल्दी जाने की प्रेरणा देती हुई वह बोली, तुम ठीक कहते हो, ऐसा ही होना चाहिये। भरत को मामा के यहाँ से बुला लाने के लिये दूत लोग शीघ्रगामी घोड़ों पर सवार होकर अवश्य जायँगे। उन्होंने आगे कहा, राम, तुम वन में जाने के लिये स्वयं ही उत्सुक जान पड़ते हो; अतः तुम्हारा विलम्ब करना मैं ठीक नहीं समझती। जितना शीघ्र सम्भव हो, तुम्हें यहाँ से वन को चल देना चाहिये। राजा लज्जित होने के कारण जो स्वयं तुमसे नहीं कहते हैं, यह कोई विचारणीय बात नहीं है। अतः इसका दुःख तुम अपने मन से निकाल दो।