Bhagavad Gita: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, ज्ञानी और स्थिर बुद्धि वाले मनुष्य को श्री कृष्ण अपने ही समान मानते है।
Bhagavad Gita: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, ज्ञानी और स्थिर बुद्धि वाले मनुष्य को श्री कृष्ण अपने ही समान मानते है।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते। वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ( अध्याय 7 श्लोक 19 )
बहूनाम्-अनेक; जन्मनाम्-जन्म; अन्ते-बाद में; ज्ञान-वान्–ज्ञान में स्थित मनुष्य; माम्-मुझको; प्रपद्यते शरणागति; वासुदेवः-वासुदेव के पुत्र, श्रीकृष्ण; सर्वम्-सब कुछ; इति–इस प्रकार; सः-ऐसा; महा-आत्मा-महान आत्मा; सु-दुर्लभः-विरले।
अर्थ - अनेक जन्मों की आध्यात्मिक साधना के पश्चात जिसे ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वह मुझे सबका उद्गम जानकर मेरी शरण ग्रहण करता है। ऐसी महान आत्मा वास्तव में अत्यन्त दुर्लभ होती है।
व्याख्या - इस श्लोक में भगवान् श्री कृष्ण कहते है कि ज्ञान प्राप्त करना इतना भी आसान नहीं होता है। एक व्यक्ति को कई जन्मों की आध्यात्मिक यात्रा के बाद इस ज्ञान को प्राप्त करता है। और जब ज्ञानयोग में कोई पुरुष स्थिर हो जाता है वो मेरे स्वरुप को समझ जाता है। भक्ति से उसकी श्रद्धा और विश्वास मुझ पर होता है और वो मुझसे प्रेम करने लगता है। जब कोई व्यक्ति पूर्ण शुद्ध बुद्धि से मेरी शरण ग्रहण करता है तो वो मुझे बेहद प्रिय है लेकिन ऐसी महान आत्मा बेहद दुर्लभ होती है।
कामैस्तैस्तैर्हतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः, तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ( अध्याय 7 श्लोक 20 )
कामैः-भौतिक कामनाओं द्वारा; तैः-तैः-विविध; हृत-ज्ञाना:-जिनका ज्ञान भ्रमित है; प्रपद्यन्ते–शरण लेते हैं; अन्य-अन्य; देवताः-स्वर्ग के देवताओं की; तम्-तम्-अपनी-अपनी; नियमम् नियम एवं विनियम; आस्थाय-पालन करना; प्रकृत्या स्वभाव से; नियता:-नियंत्रित; स्वया अपने आप।
अर्थ - वे मनुष्य जिनकी बुद्धि भौतिक कामनाओं द्वारा भ्रमित हो गयी है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं। अपनी-अपनी प्रवृत्ति के अनुसार वे देवताओं की पूजा करते हैं और इन देवताओं को संतुष्ट करने के लिए वे धार्मिक कर्मकाण्डों में संलग्न रहते हैं।
व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण उन लोगों की व्याख्या करते है जिनकी बुद्धि भौतिक कामना में है। हालांकि जब तक मनुष्य के कर्म शुद्ध है ऐसा होना कोई बुरी बात नहीं है। इसलिए कृष्ण आगे कहते है कि ऐसे लोग देवताओं की शरण में चले जाते है। जिसकी जो कामना होती है वो उसी प्रकार के देवता का पूजन करता है और धार्मिक कर्म कांड को महत्व देते है। क्योंकि यज्ञ और हवन से ही देवताओं की पुष्टि होती है। लेकिन जिन्होंने अपने कर्म फल को पूरी तरह त्याग दिया है और जिन्हे किसी भी प्रकार की कोई कामना या इच्छा नहीं है वो श्री भगवान को भजते है।