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Bhagavad Gita Part 144: मनुष्य भगवान के अविनाशी स्वरूप में कैसे स्थिर हो सकता है? कृष्ण ने समझाया

जीवांजलि धार्मिक डेस्क Published by: निधि Updated Fri, 31 May 2024 02:13 PM IST
सार

Bhagavad Gita Part 144: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते है कि हर कोई व्यक्ति अपनी मृत्यु के समय ईश्वर को नहीं याद कर सकता है।

Bhagavad Gita
Bhagavad Gita- फोटो : JEEVANJALI

विस्तार

Bhagavad Gita Part 144: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते है कि हर कोई व्यक्ति अपनी मृत्यु के समय ईश्वर को नहीं याद कर सकता है। इसके लिए मनुष्य में कुछ अच्छे और विशिष्ट गुण होने चाहिए। आगे भगवान् बोले, 
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यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ( अध्याय 8 श्लोक 11 )

यत्-जिस; अक्षरम्-अविनाशी; वेद-विदः-वेदों के ज्ञाता; वदन्ति–वर्णन करते हैं; वशन्ति–प्रवेश करना; यत्-जिसमें; यतयः-बड़े-बड़े तपस्वी; वीत-रागाः-आसक्ति रहित; यत्-जो; इच्छन्तः-इच्छा करने वाले; ब्रह्मचर्यम् ब्रह्मचर्य का; चरन्ति–अभ्यास करना; तत्-उस; ते-तुमको; पदं-लक्ष्य; सङ्ग्रहेण-संक्षेप में; प्रवक्ष्ये-मैं बतलाऊँगा।
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अर्थ -  वेदों के ज्ञाता उसका वर्णन अविनाशी के रूप में करते हैं। महान तपस्वी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं और उसमें स्थित होने के लिए सांसारिक सुखों का त्याग करते हैं। मैं तुम्हें इस मुक्ति के मार्ग के संबंध में संक्षेप में बताऊंगा। 

व्याख्या - पिछले श्लोक में अपनी बात को समझाने के बाद कृष्ण अर्जुन से कहते है कि जो वेद है उनके विद्वान लोग ईश्वर को अविनाशी भी कहते है। यानी कि वो जिसका कभी विनाश नहीं हो सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ईश्वर अजर है। ये समस्त जगत उनके आधीन है और उनके द्वारा ही नष्ट किया जाता है। आगे कृष्ण कहते है कि उन्हें प्राप्त करने के लिए बेहद कठोर तप करना होता है। ये एक ऐसा मार्ग है जहां मनुष्य को अपनी सभी कामनाओं और सुखों से मुक्त होना पड़ता है। यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि यह सब बलपूर्वक नहीं बल्कि अभ्यास के द्वारा करने की आज्ञा गीता में दी गई है। 

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च। मूर्ध्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ( अध्याय 8 श्लोक 12 )


सर्व-द्वाराणि-समस्त द्वार; संयम्य-नियंत्रित करके; मन:-मनः हृदि हृदय में; निरूध्य–अवरोध; च-भी; मूर्ध्नि-सिर पर; आधाय–स्थिर करना; आत्मन:-अपने प्राणम्-प्राणवायु को; आस्थितः-स्थित; योग-धारणाम् योग में एकाग्रता।

अर्थ - शरीर के समस्त द्वारों को बंद कर मन को हृदय स्थल पर स्थिर करते हुए और प्राण वायु को सिर पर केन्द्रित करते हुए मनुष्य को दृढ़ यौगिक चिन्तन में स्थित हो जाना चाहिए।  

व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते है कि सबसे पहले अपने शरीर की इन्द्रियों को वश में करना बेहद ज़रूरी है। 'सर्वद्वाराणि संयम्य' से उनका आशय शरीर में प्रवेश होने वाली संसार की कामनाओं से है। यहां सिर्फ आँख बंद करने का आदेश भी दिया जा सकता था लेकिन उच्च स्तर की साधना को करने के लिए सिर्फ आंख बंद करना ही पर्याप्त नहीं है। इसके बाद कृष्ण कहते है, अपने मन को ह्रदय स्थल पर स्थिर करो। इस बात को पहले समझाया जा चुका है कि, ईश्वर सबके हृदय में अंश रूप में विद्यमान रहते है। आत्मा को योगीजन ईश्वर का ही अंश कहते है। वहीं मन बड़ा चंचल होता है। जब तक मन को एकाग्र नहीं किया जाएगा तब तक हृदय में विराजमान उस आत्मा से मिलन कैसे होगा? इसलिए प्राण वायु को सिर पर केंद्रित करके दृढ़ यौगिक चिन्तन में स्थित हो जाना चाहिए।
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