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Bhagavad Gita Part 137: मृत्यु के समय भी किसकी आत्मा कृष्ण की पूर्ण चेतना में लीन रहती हैं? समझिए

जीवांजलि धार्मिक डेस्क Published by: निधि Updated Wed, 22 May 2024 06:27 PM IST
सार

Bhagavad Gita Part 137: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, श्री कृष्ण अर्जुन को यह समझाते है कि संसार की वस्तुओं से मोह कैसे पैदा होता है?

Bhagavad Gita Part 137:
Bhagavad Gita Part 137:- फोटो : JEEVANJALI

विस्तार

Bhagavad Gita Part 137: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, श्री कृष्ण अर्जुन को यह समझाते है कि संसार की वस्तुओं से मोह कैसे पैदा होता है? इसके बाद वो अर्जुन को यह भी समझाते है कि ऐसा कौनसा मनुष्य होता है जिसे मोह नहीं होता है। 
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जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये। ते ब्रह्य तद्विदुः कृत्स्न्मध्यात्म कर्म चाखिलम्  (अध्याय 7 श्लोक 29)


जरा-वृद्धावस्था; मरण-और मृत्यु से; मोक्षाय–मुक्ति के लिए; माम्-मुझको, मेरे; आश्रित्य–शरणागति में; यतन्ति-प्रयत्न करते हैं; ये-जो; ते-ऐसे व्यक्ति; ब्रह्म-ब्रह्म; तत्-उस; विदु-जान जाते हैं; कृत्स्नम्-सब कुछ; अध्यात्मम्-जीवात्मा; कर्म-कर्म; च-भी; अखिलम् सम्पूर्ण;

अर्थ - जो मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे बुढ़ापे और मृत्यु से छुटकारा पाने की चेष्टा करते हैं, वे ब्रह्म, अपनी आत्मा और समस्त कार्मिक गतिविधियों के क्षेत्र को जान जाते हैं।  
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व्याख्या - इस श्लोक में भगवान् श्री कृष्ण इस बात की घोषणा कर रहे है कि वो ही सर्व शक्तिमान है। आम तौर पर व्यक्ति अपनी इच्छा को पूर्ण करने के लिए भगवान् की शरण में जाता है लेकिन अगर वो अपने आप को सम्पूर्ण रूप से ईश्वर को सौंप दे तो उसे आत्मा का ज्ञान भी हो सकता है। ईश्वर एक बड़े समुद्र की भांति है और हम मनुष्य इस सागर की बूंद मात्र है। यानी कि हम इस संसार का हिस्सा तो है लेकिन हमे इस संसार और इस प्रकृति का ज्ञान नहीं है। 

अगर वो प्राप्त करना है तो जाहिर सी बात है ईश्वर की शरणागति लेनी होगी। जिसे भगवान् का ज्ञान हो जाता है उसे अपने आप इस संसार का ज्ञान हो जाता है। हालांकि यह उतना आसान भी नहीं होता है। अर्जुन, श्री कृष्ण का भक्त होने के साथ ही मित्र भी था लेकिन उसे भी दिव्य नेत्र कृष्ण को देने पड़े थे। ऐसे में अपनी आत्मा का ज्ञान करना अपने आप में भक्ति की उच्च अवस्था कही जा सकती है। 

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः। प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ( अध्याय 7 श्लोक 30 )


स-अधिभूत-प्राकृतिक तत्त्वों को चलाने वाले सिद्धान्त; अधिदैवम् समस्त देवताओं को नियन्त्रित करने वाले सिद्धान्त; माम्-मुझको; स-अधियज्ञम् समस्त यज्ञों को सम्पन्न करने वाले सिद्धान्त का नियामक भगवान; च और; ये-जो; विदुः-जानते हैं। प्रयाण-मृत्यु के; काले-समय में; अपि-भी; च-तथा; माम्-मुझको; ते–वे; विदुः-जानना; युक्त-चेतसः-जिनकी चेतना पूर्णतया मुझमें है।

अर्थ - वे जो मुझे 'अधिभूत' प्रकृति के तत्त्व के सिद्धान्त और 'अधिदेव' देवतागण तथा 'अधियज्ञ' यज्ञों के नियामक के रूप में जानते हैं, ऐसी प्रबुद्ध आत्माएँ सदैव यहाँ तक कि अपनी मृत्यु के समय भी मेरी पूर्ण चेतना में लीन रहती हैं। 

व्याख्या - गीता के पिछले अध्यायों में श्री कृष्ण इस बात को समझा चुके है कि प्रकृति के पंच तत्व उनकी परा शक्ति और योगमाया उनकी अपरा शक्ति है। वो ही यज्ञ के उत्तम देवता है। वो देवताओं को प्रेरणा देते है। जब आप यज्ञ करके देवताओं को भाग देते है तो उन देवताओं को प्रेरणा भी कृष्ण देते है। ऐसे में एक ऐसा व्यक्ति जिसकी बुद्धि शुद्ध हो गई है वो सदैव कृष्ण को ही परम ईश्वर के रूप में देखता है। 

ऐसे व्यक्ति की आत्मा पूर्ण रूप से कृष्ण भक्ति में ही लीन रहती है। इसलिए श्री कृष्ण कहते है कि सिर्फ जीवन में ही नहीं बल्कि मृत्यु के समय भी उनकी आत्मा भौतिक संसार में नहीं बल्कि अपने आराध्य कृष्ण के चरणों में लीन रहती है। जब किसी व्यक्ति की मौत होती है तो वह कुछ बोल नहीं पाता है लेकिन जिन लोगों पर कृष्ण की कृपा होती है वो अपने अंतिम समय में भी भगवान का नाम लेने में समर्थ हो जाते है।
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