Bhagavad Gita : भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, जो भक्त होता है वो श्री भगवान को ही सच्चा हितैषी मानते है। इसलिए भक्ति प्राप्त करके की पहली शर्त यही है कि आपको अपने भगवान् में पूर्ण विश्वास होना बहुत ज़रूरी है।
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः, स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः (अध्याय 6 श्लोक 1 )
श्रीभगवानुवाच–परम् भगवान ने कहा; अनाश्रितः-आश्रय न लेकर; कर्मफलं-कर्म-फल; कार्यम्-कर्त्तव्य; कर्म-कार्यः करोति-निष्पादन; यः-वह जो; सः-वह व्यक्ति; संन्यासी-संसार से वैराग्य लेने वाला; च-और; योगी-योगी; च-और; न नहीं; निः-रहित; अग्नि:-आग; न-नहीं; च-भी; अक्रियः-निष्क्रिय।।
अर्थ - वे मनुष्य जो कर्मफल की कामना से रहित होकर अपने नियत कर्मों का पालन करते हैं वे वास्तव में संन्यासी और योगी होते हैं, न कि वे जो अग्निहोत्र यज्ञ संपन्न नहीं करते अर्थात अग्नि नहीं जलाते और शारीरिक कर्म नहीं करते।
व्याख्या - आम तौर पर हम देखते है कि एक सवाल बार बार चर्चा का विषय बन जाता है कि " असली संन्यासी या योगी कौन है?" श्री कृष्ण इस श्लोक में उसी शंका का निवारण करते है। वो कहते है कि सिर्फ अग्नि कर्म का त्याग कर देने से कोई योगी या संन्यासी नहीं बन जाता है।
इसके लिए कुछ शर्तों का पालन करना ज़रूरी हो जाता है। ऐसा नहीं है कि किसी ने सिर्फ शरीरिक कर्म छोड़ दिया और वो योगी हो गया ! दरअसल कर्मफल की कामना से रहित जो मनुष्य है उसी को श्री कृष्ण ने योगी कहा है। वो सदैव अपने नियत कर्मों का पालन करता है और कर्मफल में आसक्त नहीं होने के कारण वो इच्छाओं और क्रोध से मुक्त होता है।
यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव, न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ( अध्याय 6 श्लोक 2 )
यम्-जिसे; संन्यासम्-वैराग्य; इति–इस प्रकार; प्राहुः-वे कहते हैं; योगम् योग; तम्-उसे; विद्धि-जानो; पाण्डव-पाण्डुपुत्र, अर्जुन; न कभी नहीं; हि-निश्चय ही; असंन्यस्त-त्याग किए बिना; सङ्कल्पः-इच्छा; योगी-योगी; भवति–होता है; कश्चन-कोई;
अर्थ - जिसे संन्यास के रूप में जाना जाता है वह योग से भिन्न नहीं है। कोई भी सांसारिक कामनाओं का त्याग किए बिना संन्यासी नहीं बन सकता।
व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण दो बातों को स्पष्ट करते है। पहला तो वो यह समझाते है कि संन्यासी को योगी की संज्ञा दी जा सकती है। इन दोनों में किसी भी प्रकार का कोई भेद नहीं माना जा सकता है। दूसरी पंक्ति में वो यह क्लियर करते है कि योगी या संन्यासी का पद प्राप्त करना इतना भी आसान नहीं है।
इसके लिए मनुष्य को सांसारिक कामना का त्याग करना ही होता है और किसी भी प्रकार के इन्द्रियों का दमन भी नहीं कर सकते। यह बुद्धि की एक ऐसी अवस्था है जहां मनुष्य के सभी कर्म श्री भगवान् के चरणों में समर्पित हो जाते है। ऐसे में ज्ञानयोग की इसमें बहुत बड़ी भूमिका है।