Bhagavad Gita: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, मन ही सब कलेश का कारण है और जिसने मन को अपने काबू में कर लिया ऐसा व्यक्ति स्वयं की आत्मा में ही लीन हो जाता है।
Bhagavad Gita: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, मन ही सब कलेश का कारण है और जिसने मन को अपने काबू में कर लिया ऐसा व्यक्ति स्वयं की आत्मा में ही लीन हो जाता है।
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः, प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः, विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ( अध्याय 5 श्लोक 27,28 )
स्पर्शान-इन्द्रिय विषयों से सम्पर्क; कृत्वा-करना; बहिः-बाहरी; बाह्यान्–बाहरी विषय; चक्षुः-आंखें; च और; एव–निश्चय ही; अन्तरे-मध्य में; भ्रवोः-आंखों की भौहों के; प्राण-अपानो-बाहरी और भीतरी श्वास; समौ-समान; कृत्वा-करना; नास-अभ्यन्तर-नासिका छिद्रों के भीतर; चारिणौ-गतिशील; यत-संयमित; इन्द्रिय-इन्द्रियाँ; मन:-मन; बुद्धिः-बुद्धि; मुनिः-योगी; मोक्ष-मुक्ति; परायणः-समर्पित; विगत-मुक्त; इच्छा–कामनाएँ; भय-डर; क्रोधः-क्रोध; यः-जो; सदा-सदैव; मुक्तः-मुक्ति; एव–निश्चय ही; सः-वह व्यक्ति।
अर्थ - समस्त बाह्य इन्द्रियाँ सुख के विषयों का विचार न कर अपनी दृष्टि को भौहों के बीच के स्थान में स्थित कर नासिका में विचरने वाली भीतरी और बाहरी श्वासों के प्रवाह को सम करते हुए इन्द्रिय, मन और बुद्धि को संयमित करके जो ज्ञानी कामनाओं और भय से मुक्त हो जाता है, वह सदा के लिए मुक्त हो जाता है।
व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण समझा रहे है कि योगी और तपस्वी किस प्रकार अपने मन को संयम में रखते हुए मुक्त हो जाते है। कृष्ण कहते है कि योगी व्यक्ति कभी भी बाहरी इन्द्रियों के सुख के बारे में विचार नहीं करता है। उसे किसी भी प्रकार के सुख की कामना भी नहीं होती है और जो मिल जाता है वह उसी में संतुष्ट रहता है। जब कोई व्यक्ति अपने मन, बुद्धि और इन्द्रियों को संयमित कर लेता है तो वो अपने आप ही इच्छाओं और भय से मुक्त हो सकता है। ऐसे योगीजन को कृष्ण भक्ति प्राप्त होती है।
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् , सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति (अध्याय 5 श्लोक 29 )
भोक्तारम्-भोक्ता; यज्ञ-यज्ञ; तपसाम्-तपस्या; सर्वलोक-सभी लोक; महाईश्वरम्-परम् प्रभुः सुहृदम्-सच्चा हितैषी; सर्व-सबका; भूतानाम्-जीव; ज्ञात्वा-जानकर; माम्-मुझे, श्रीकृष्ण; शान्तिम्-शान्ति; ऋच्छति-प्राप्त करता।
अर्थ - जो भक्त मुझे समस्त यज्ञों और तपस्याओं का भोक्ता, समस्त लोकों का परम भगवान और सभी प्राणियों का सच्चा हितैषी समझते हैं, वे परम शांति प्राप्त करते हैं।
व्याख्या - पांचवे अध्याय के इस अंतिम श्लोक में श्री कृष्ण कहते है कि, तपस्या का मार्ग भी इस ज्ञान के साथ कि 'परम भगवान ही सभी तपों और यज्ञों के भोक्ता हैं', भगवान की शरणागति में समाप्त होता है। जो भक्त होता है वो श्री भगवान को ही सच्चा हितैषी मानते है। इसलिए भक्ति प्राप्त करके की पहली शर्त यही है कि आपको अपने भगवान् में पूर्ण विश्वास होना बहुत ज़रूरी है।
( इस प्रकार गीता का पंचम अध्याय सम्पूर्ण हुआ )