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Bhagavad Gita Part 97: ऐसा कौन है जो सिर्फ लोक में नहीं परलोक में भी माया के बंधन से मुक्त हो सके? जानें जवाब

jeevanjali Published by: निधि Updated Fri, 16 Feb 2024 06:58 PM IST
सार

भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, व्यक्ति को सदैव अपनी आत्मा को समझने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि वह परमात्मा की अंश है। जो व्यक्ति आत्मा से जुड़ा हुआ दिव्य ज्ञान प्राप्त कर लेता है वो सदैव अपनी बुद्धि को शुद्ध रख सकता है।

भगवद्गीता
भगवद्गीता- फोटो : jeevanjali

विस्तार

भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, व्यक्ति को सदैव अपनी आत्मा को समझने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि वह परमात्मा की अंश है। जो व्यक्ति आत्मा से जुड़ा हुआ दिव्य ज्ञान प्राप्त कर लेता है वो सदैव अपनी बुद्धि को शुद्ध रख सकता है।

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लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः, छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ( अध्याय 5 श्लोक 25 )

लभन्ते–प्राप्त करना; ब्रह्मनिर्वाणम्-भौतिक जीवन से मुक्ति; ऋषयः-पवित्र मनुष्य; क्षीण-कल्मषा:-जिसके पाप धुल गए हों; छिन्न-संहार; द्वैधाः-संदेह से; यत-आत्मानः-संयमित मन वाले; सर्वभूत-समस्त जीवों के; हिते-कल्याण के कार्य; रताः-आनन्दित होना।

अर्थ - वे पवित्र मनुष्य जिनके पाप धुल जाते हैं और जिनके संशय मिट जाते हैं और जिनका मन संयमित होता है वे सभी प्राणियों के कल्याणार्थ समर्पित हो जाते हैं तथा वे भगवान को पा लेते हैं और सांसारिक बंधनों से भी मुक्त हो जाते हैं।

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व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण समझाते है कि जो बुद्धिमान मनुष्य होता है उसके मन की अवस्था कैसी होती है ! हम अक्सर यह देखते है कि मुनि, साधु लोग अपने शरीर का उपयोग सांसारिक भोगों में नहीं बल्कि जगत के कल्याण के लिए करते है। जैसा की हम पहले भी समझ चुके है कि व्यक्ति कितना ही भोग कर ले उसके बाद भी वो संतुष्ट नहीं हो सकता लेकिन जिनकी चेतना उस परम कल्याणकारी श्री भगवन के चरणों में है वो इन भोगों से मुक्त हो जाता है।

उनके सारे संशय, कुतर्क, पाप सब नष्ट हो चुके होते है। वो अपने कर्मों को स्वयं का भी नहीं मानते जिससे सांसारिक बंधन भी उन्हें प्रभावित नहीं कर पाते है। ऐसे योगीजन सिर्फ और सिर्फ संसार के कल्याण के लिए ही जीवन जीते है।

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्, अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ( अध्याय 5 श्लोक 26 )

काम-इच्छाएँ; क्रोध-क्रोध; वियुक्तानाम् वे जो मुक्त हैं; यतीनाम्-संत महापुरुष; यत-चेतसाम्-आत्मलीन और मन पर नियंत्रण रखने वाला; अभितः-सभी ओर से; ब्रह्म-आध्यात्मिक; निर्वाणम्-भौतिक जीवन से मुक्ति; वर्तते-होती है। विदित-आत्मनाम्-वे जो आत्मलीन हैं।

अर्थ - ऐसे संन्यासी भी जो सतत प्रयास से क्रोध और काम वासनाओं पर विजय पा लेते हैं एवं जो अपने मन को वश में कर आत्मलीन हो जाते हैं, वे इस जन्म में और परलोक में भी माया शक्ति के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं।

व्याख्या - प्रभु श्री कृष्ण इस श्लोक में पिछले श्लोक की ही बात को आगे बढ़ा रहे हैं। हम सब इस बात को जानते है कि संसार में ऐसा कोई भी जीव नहीं है जो प्रकृति की माया से प्रभावित नहीं होता है। हम सब रजोगुण, सतोगुण

और तमोगुण में से किसी न किसी गुण से प्रभावित होकर ही कर्म करते है लेकिन ऐसा कौन है जो इस माया शक्ति के बंधन से मुक्त है?

श्री कृष्ण कहते है कि इस संसार में कुछ योगी और संन्यासी ऐसे है जो ऐसा कर पाते। है दरअसल उन्होंने सतत प्रयास और अभ्यास से अपने क्रोध और वासना पर विजय प्राप्त की है। मन ही सब कलेश का कारण है और जिसने मन को अपने काबू में कर लिया ऐसा व्यक्ति स्वयं की आत्मा में ही लीन हो जाता है। श्री कृष्ण तो इतना तक कह रहे है कि वो लोक में ही नहीं बल्कि परलोक में भी माया के बंधन से मुक्त हो सकता है।

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