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Bhagavad Gita Part 95: बुद्धिमान लोग सांसारिक सुखों में रुचि क्यों नहीं लेते? इस रहस्य को जानें और समझें

jeevanjali Published by: निधि Updated Thu, 15 Feb 2024 06:39 PM IST
सार

Bhagavad Gita: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, - जो बाह्य इन्द्रिय सुखों में आसक्त नहीं होते वे आत्मिक परम आनन्द की अनुभूति करते हैं।

भागवदगीता
भागवदगीता- फोटो : jeevanjali

विस्तार

Bhagavad Gita: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, - जो बाह्य इन्द्रिय सुखों में आसक्त नहीं होते वे आत्मिक परम आनन्द की अनुभूति करते हैं।

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ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ( अध्याय 5 श्लोक 22 )

ये-जो; हि-वास्तव में; संस्पर्शजा:-इन्द्रियों के विषयों के स्पर्श से उत्पन्न; भोगा:-सुख भोग; दुःख-दुख; योनयः-का स्रोत, एव–वास्तव में; ते–वे; आदि-अन्तवन्तः-आदि और अन्तवाले; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; न कभी नहीं; तेषु–उनमें; रमते-आनन्द लेता है; बुधः-बुद्धिमान्।

अर्थ - इन्द्रिय विषयों के सम्पर्क से उत्पन्न होने वाले सुख यद्यपि सांसारिक मनोदृष्टि वाले लोगों को आनन्द प्रदान करने वाले प्रतीत होते हैं किन्तु वे वास्तव में दुखों के कारण हैं। हे कुन्तीपुत्र ! ऐसे सुखों का आदि और अंत है इसलिए ज्ञानी पुरुष इनमें आनन्द नहीं लेते।

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व्याख्या - श्री कृष्ण इस श्लोक में सांसारिक सुख में डूबे हुए लोगों को सावधान करते है। आम तौर पर हमें लगता है कि शरीर के सुख आनंद देते है लेकिन वो दुःख के कारण बनते है। उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति चाहे कितना ही धन कमा ले लेकिन अपने से अधिक धनवान व्यक्ति को देखकर उसे कभी सुख प्राप्त नहीं होता है। उसे द्वेष और ईर्ष्या से जलन होती है, ऐसे में अब उस धन का क्या लाभ? उसी प्रकार किसी शराबी को किसी रात्रि को खूब शराब पीने को मिल जाए लेकिन अगली रात उसे फिर शराब चाहिए ! यानी कि उस भोग की इच्छा फिर होने लगी, अब अगर उसके पास पैसे नहीं है तो वो चोरी करेगा लेकिन शराब ज़रुर पीयेगा ऐसे में भोग व्यक्ति को कष्ट ही प्रदान करते है।

व्यक्ति का मन इस प्रकार का होता है कि वो हर चमकती चीज के पीछे भागता है और बाद में वो उसकी क़द्र ही नहीं करता है। एक स्त्री पुरुष के प्रेम में पागल होने का दावा करती है लेकिन बाद में उसी पुरुष से उसका तलाक हो जाता है। आखिर ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मनुष्य धीरे धीरे उस भोग से ऊबने लगता है और अंत में उससे स्वयं को दूर कर लेता है और फिर एक नए भोग की तलाश में निकल जाता है।

जैसे किसी व्यक्ति को रबड़ी बेहद पसंद है तो पहली बार वो खूब जमकर रबड़ी खायेगा ! अगले दिन उससे कम, फिर और कम और अगर आप लगातार 7 दिन भी अगर उसे सिर्फ रबड़ी ही दे तो वो क्रोध में आपको थप्पड़ भी मार सकता है। यही बुद्धि मनुष्य का नाश करती है। संसार के सुख का अंत है लेकिन ईश्वर में चरणों में जिसने अपना कर्म सौंप दिया वो कभी दुःखी नहीं होता क्योंकि वो आनंद असीम है और कभी नष्ट नहीं होता है। इसलिए श्री कृष्ण कहते है कि ज्ञानी लोग इस प्रकार के सांसारिक सुख में आनंद नहीं लेते है।

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