Bhagavad Gita: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, वे जिनका मन समदृष्टि में स्थित हो जाता है, वे इसी जीवन में जन्म और मरण के चक्र से मुक्ति पा लेते हैं।
Bhagavad Gita: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, वे जिनका मन समदृष्टि में स्थित हो जाता है, वे इसी जीवन में जन्म और मरण के चक्र से मुक्ति पा लेते हैं।
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्, स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः (अध्याय 5 श्लोक 20 )
न–कभी नहीं; प्रहृष्येत्-हर्षित होना; प्रियम्-परम सुखदः प्राप्य प्राप्त करना; न-नहीं; उद्विजेत्–विचलित होना; प्राप्य–प्राप्त करके; च-भी; अप्रियम्-दुखद; स्थिरबुद्धिः-दृढ़ बुद्धि, असम्मूढः-पूर्णतया स्थित, संशयरहित; ब्रह्म-वित्-दिव्य ज्ञान का बोध; ब्रह्मणि-भगवान में; स्थित:-स्थित।
अर्थ - परमात्मा में स्थित होकर, दिव्य ज्ञान में दृढ़ विश्वास धारण कर और मोह रहित होकर वे सुखद पदार्थ पाकर न तो हर्षित होते हैं और न ही अप्रिय स्थिति में दुखी होते हैं।
व्याख्या - श्री कृष्ण समझाते है कि दिव्यज्ञान का अर्थ अपने सभी कर्मों को श्री भगवान् को सौंप देना है। ऐसा व्यक्ति जब अपने कर्म में सफलता प्राप्त करता है तो ना तो उसे हर्ष का अनुभव होता है और जब कर्म से असफलता मिलती है तो वो दुखी नहीं होता। आखिर ऐसा संभव कैसे हो सकता है?
एक साधारण व्यक्ति के लिए ये संभव नहीं है लेकिन जिसे प्रामाणिक गुरु मिल गया हो और जिसका भक्ति में दृढ विश्वास हो ऐसा व्यक्ति उस दिव्यज्ञान को प्राप्त कर सकता है और स्वयं को परमात्मा में स्थित कर सकता है।
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्, स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते (अध्याय 5 श्लोक 21 )
बाह्य-स्पर्शेषु-बाहा इन्द्रिय सुख; असक्त-आत्मा-वे जो अनासक्त रहते हैं; विन्दति–पाना; आत्मनि-आत्मा में; यत्-जो; सुखम्-आनन्द; सः-वह व्यक्ति; ब्रह्म-योग-युक्त-आत्मा योग द्वारा भगवान में एकाकार होने वाले; सुखम् आनन्द; अक्षयम्-असीम; अश्नुते–अनुभव करता।
अर्थ - जो बाह्य इन्द्रिय सुखों में आसक्त नहीं होते वे आत्मिक परम आनन्द की अनुभूति करते हैं। भगवान के साथ एकनिष्ठ होने के कारण वे असीम सुख भोगते हैं।
व्याख्या - आम तौर पर जो साधारण मनुष्य होते है उन्हें ऐसा लगता है कि शरीर के सुख ही आनंद के कारक है। ऐसे लोग जो पैसे कमाकर संसार के विषय भोग में डूबे रहते है उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं होता है कि आनंद की अनुभूति शरीर सुख में नहीं है।
वास्तविकता तो यह है कि जिन लोगों की बुद्धि दिव्यज्ञान को प्राप्त कर लेती है और बाह्य इन्द्रिय सुखों में आसक्त नहीं होते वो ही परम आनंद भोगते है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वो अपने मन और बुद्धि को श्री भगवान् में एकनिष्ठ कर देते है।