भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, जो देहधारी जीव आत्मनियंत्रित एवं निरासक्त होते हैं, नौ द्वार वाले भौतिक शरीर में भी वे सुखपूर्वक रहते हैं।
भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, जो देहधारी जीव आत्मनियंत्रित एवं निरासक्त होते हैं, नौ द्वार वाले भौतिक शरीर में भी वे सुखपूर्वक रहते हैं।
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः , न कमर्फलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते (अध्याय 5 श्लोक 14 )
न–नहीं; कर्तृव्यम्-कर्त्तापन का बोध; न न तो; कर्माणि-कर्मों के; लोकस्य–लोगों के; सृजति उत्पन्न करता है। प्रभुः-भगवान; न न तो; कर्म-फल-कर्मों के फल; संयोगम् सम्बन्ध; स्वभावः-जीव की प्रकृति; तु-लेकिन; प्रवर्तते-कार्य करते हैं।
अर्थ - न तो कर्त्तापन का बोध और न ही कर्मों की प्रवृत्ति भगवान से प्राप्त होती है तथा न ही वे कर्मों के फल का सृजन करते हैं। यह सब प्रकृत्ति के गुणों से सृजित होते हैं।
व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण इस बात को स्पष्ट करते है कि श्री भगवान् मनुष्य के किसी भी कर्म के लिए उत्तरदायी नहीं होते है। वो किसी भी प्रकार से हमारे कर्मों के संचालक नहीं है। वो इस संसार के स्वामी है लेकिन उनके भीतर अकर्ता का बोध रहता है। तो अब आखिर प्रश्न यह उठता है कि अगर ईश्वर कर्म फल का सृजन नहीं करते तो व्यक्ति कर्म किससे प्रभावित होकर करता है?
इसका उत्तर भी श्री कृष्ण देते है। वो कहते है, अज्ञानता के कारण आत्मा स्वयं को शरीर मानकर कर्मों के कर्त्तापन के भ्रम में उलझ जाती है जो कि वास्तव में प्रकृति के तीन गुणों द्वारा सम्पन्न होते हैं।
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः, अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ( अध्याय 5 श्लोक 15 )
न–कभी नहीं; आदत्ते-स्वीकार करना; कस्यचित्-किसी का; पापम्-पाप; न-न तो; च-और; एव-निश्चय ही; सु-कृतम्-पुण्य कर्म; विभुः-सर्वव्यापी भगवान; अज्ञानेन–अज्ञान से; आवृतम्-आच्छादित; ज्ञानम्-ज्ञान; तेन-उससे; मुह्यन्ति-मोह ग्रस्त होते हैं; जन्तवः-जीवगण।
अर्थ - सर्वव्यापी परमात्मा किसी के पापमय कर्मों या पुण्य कर्मों में स्वयं को लिप्त नहीं करते। किन्तु जीवात्माएँ मोहग्रस्त रहती हैं क्योंकि उनका वास्तविक आत्मिक ज्ञान अज्ञान से आच्छादित रहता है।
व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण समझाते है कि जैसे ईश्वर किसी मनुष्य के कर्म के लिए उत्तरदायी नहीं है ठीक उसी प्रकार वो किसी के पाप और पुण्य के कर्म में भी उसे लिप्त नहीं करते है। एक जीव की आत्मा अच्छे बुरे दोनों कर्म करने के लिए स्वतंत्र है। ईश्वर सिर्फ आत्मा के रूप में उस शरीर को शक्ति प्रदान करते है। कर्म का चुनाव स्वयं जीवात्मा को ही करना होता है।
इसलिए समय समय पर ईश्वर अवतार लेते है और अच्छे बुरे कर्मों का विभाजन करते है। कुछ जीव ऐसे है जिन्हे इस बात का ज्ञान नहीं है और अगर उनके जीवन में कुछ गलत होता है या उनसे कोई भूल हो जाती है तो वो बिना विचार किए ही ईश्वर पर दोषारोपण करने लगते है जबकि वाकई में ईश्वर को आपके किसी पाप या पुण्य से कोई लेना देना होता ही नहीं है।