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Bhagavad Gita Part 89: मनुष्य भक्ति के मार्ग को कैसे प्राप्त कर सकता है? श्री कृष्ण ने ये कमल के पुष्प से समझा

jeevanjali Published by: निधि Updated Sun, 11 Feb 2024 07:52 PM IST
सार

भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, कर्मयोगी किसी भी अवस्था में खुद को कर्म का जनक नहीं मानता है। उसके पास गुरु कृपा से दिव्य ज्ञान होता है।

भगवद गीता
भगवद गीता- फोटो : jeevanjali

विस्तार

भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, कर्मयोगी किसी भी अवस्था में खुद को कर्म का जनक नहीं मानता है। उसके पास गुरु कृपा से दिव्य ज्ञान होता है जिसके कारण वो समझता है कि सिर्फ भौतिक इन्द्रियाँ ही संसार के भोग के प्रति क्रियाशील है और वो उसे अपना कर्तव्य समझकर करता है।

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ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सऊं त्यक्त्वा करोति यः, लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ( अध्याय 5 श्लोक 10 )

ब्रह्मण-भगवान् को; आधाय–समर्पित; कर्माणि-समस्त कार्यों को; सङ्गगम्-आसक्ति; त्यक्त्वा-त्यागकर; करोति-करना यः-जो; लिप्यते-प्रभावित होता है; न कभी नहीं; स:-वह; पापेन-पाप से; पद्म-पत्रम्-कमल पत्र; इव-के समान; अम्भसा-जल द्वारा।

अर्थ - वे जो अपने कर्मफल भगवान को समर्पित कर सभी प्रकार से आसक्ति रहित होकर कर्म करते हैं, वे पापकर्म से उसी प्रकार से अछूते रहते हैं जिस प्रकार से कमल के पत्ते को जल स्पर्श नहीं कर पाता।

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व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण मनुष्य के लिए कमल के पुष्प का उदाहरण प्रस्तुत करते है। हम सब इस बात को जानते है कि कमल का पुष्प कीचड़ में विकसित होता है लेकिन उससे वो प्रभवित नहीं होता है। वह सदैव अपनी सौन्दर्य को बनाए हुए रखता है। श्री कृष्ण कहते है कि अगर कोई मनुष्य कमल के पुष्प की तरह बन जाए तो वो भक्ति को प्राप्त कर सकता है। यह संसार ना जाने कितने विषय भोगों से भरा हुआ है। अगर इससे मुक्त होना है तो व्यक्ति को आसक्ति रहित कर्म करना होगा और अपने कर्म का फल ईश्वर को सौंप देने होगा। ऐसा करने से विषय भोग आपको प्रभावित नहीं कर सकते जैसे कमल के पुष्प को कीचड़ प्रभावित नहीं कर पाता है।

कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि, योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ( अध्याय 5 श्लोक 11 )

कायेन-शरीर के साथ; मनसा-मन से; बुद्धया-बुद्धि से; केवलैः-केवल; इन्द्रियैः-इन्द्रियों से; अपि-भी; योगिनः-योगी; कर्म-कर्म; कुर्वन्ति-करते हैं; सङ्गम्-आसक्ति; त्यक्त्वा-त्याग कर; आत्म-आत्मा की; शुद्धये-शुद्धि के लिए। योगीजन आसक्ति को त्याग कर अपने शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि द्वारा केवल अपने शुद्धिकरण के उद्देश्य से कर्म करते हैं।

अर्थ - योगीजन आसक्ति को त्याग कर अपने शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि द्वारा केवल अपने शुद्धिकरण के उद्देश्य से कर्म करते हैं।

व्याख्या - इस श्लोक में श्री कृष्ण समझाते है कि योगीजन की बुद्धि शुद्ध हो जाती है। वो इस रहस्य को समझते है कि ईश्वर को अपने भक्त से कुछ भी नहीं चाहिए होता है, वो तो सिर्फ अपने भक्त पर कृपा करने के लिए लीला

करते है। इसलिए योगीजन का कर्म कोई सांसारिक कर्म नहीं होता है बल्कि वो अपने कर्म से स्वयं को भक्ति के योग्य बना देते है। इसलिए इस श्लोक में स्पष्ट किया गया है कि योगीजन में किसी भी प्रकार की कोई आसक्ति नहीं होती है। वो तो हमेशा शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि द्वारा केवल अपने शुद्धिकरण के उद्देश्य से कर्म करते हैं।

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