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Bhagavad Gita Part 145 : मरते समय सिर्फ 1 शब्द का उच्चारण बनेगा आपकी मोक्ष का कारण ! जानिए यह बड़ा रहस्य

जीवांजलि धार्मिक डेस्क Published by: कोमल Updated Sun, 02 Jun 2024 07:08 AM IST
सार

Bhagavad Gita Part 145 : भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते है कि अविनाशी ईश्वर का ध्यान कैसे करना है ! इसके बाद आगे भगवान् ने कहा, 

भागवद गीता
भागवद गीता- फोटो : jeevanjali

विस्तार

Bhagavad Gita Part 145 : भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते है कि अविनाशी ईश्वर का ध्यान कैसे करना है ! इसके बाद आगे भगवान् ने कहा, 
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ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्। यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ( अध्याय 8 श्लोक 13 )

ॐ निराकार भगवान के स्वरूप का प्रतिनिधित्व करने वाला मंत्र; इति–इस प्रकार; एक-अक्षरम्-एक अक्षर; ब्रह्म-परम सत्य; व्याहरन्-उच्चारण करना; माम्-मुझको; अनुस्मरन्-स्मरण करते हुए; यः-जो; प्रयाति–प्रस्थान करना; त्यजन्–छोड़ते हुए; देहम्-इस शरीर को; सः-वह; याति प्राप्त करता है। परमाम्-परम; गतिम्-लक्ष्य।

अर्थ - जो देह त्यागते समय मेरा स्मरण करता है और पवित्र अक्षर ओम का उच्चारण करता है वह परम गति को प्राप्त करेगा। 

व्याख्या - हमारी संस्कृति में ॐ शब्द का बड़ा महत्व है। यह माना जाता है कि सृष्टि की शुरुआत में सबसे पहला उच्चारण ॐ ही था। इसलिए हर मन्त्र के आगे ॐ लगाने का विधान है जो कि ईश्वर के निराकार स्वरुप को दर्शाता है। इसलिए भगवान् श्री कृष्ण कहते है कि ना सिर्फ मेरा ध्यान बल्कि मेरे निराकार स्वरुप ॐ का भी ध्यान करना बेहद ज़रूरी है। 
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अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः। तस्याहं सुलभः पार्थ नित्यमुक्तस्य योगिनः ( अध्याय 8 श्लोक 14 )

अनन्य-चेताः-बिना विचलित मन से; सततम्-सदैव; यः-जो; माम्–मुझमें; स्मरति-स्मरण; नित्यश:-नियमित रूप से; तस्य-उसका; अहम्-मैं हूँ; सु-लभः-सरलता से प्राप्त; पार्थ-पृथापुत्र; अर्जुन; नित्य-निरन्तर; युक्तस्य–तल्लीन; योगिनः-योगी।

अर्थ - जो योगी अनन्य भक्ति भाव से सदैव मेरा चिन्तन करते हैं, उनके लिए मैं सरलता से सुलभ रहता हूँ क्योंकि वे निरन्तर मेरी भक्ति में तल्लीन रहते हैं। 

व्याख्या - इस श्लोक से यह भी सत्य साबित होती है कि श्री कृष्ण कितने करुणा और दया से भरे हुए है। वो अर्जुन से सपष्ट रूप से यह कहते है कि जो भक्ति भाव से सदैव मेरा चिंतन करते है मैं उन्हें अवश्य  प्राप्त होता हूं। अनन्य भक्ति से तात्पर्य यह है कि केवल भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला, धाम और भगवान के संतों के प्रति ही मन की आसक्ति होनी चाहिए। जब किसी जीवात्मा का मन पूर्ण रूप से ईश्वर के चरण में लग जाता है तो वो सदैव ईश्वर की भक्ति में तल्लीन रहता है।
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