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Bhagavad Gita Part 103: एक साधारण मनुष्य योग की अवस्था को कैसे प्राप्त कर सकता है? श्री कृष्ण ने दिया उत्तर

jeevanjali Published by: निधि Updated Mon, 26 Feb 2024 06:36 PM IST
सार

Bhagavad Gita Part 103: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, जब व्यक्ति अपने मन पर काबू करता है तो उसकी बुद्धि शुद्ध हो जाती है जिसके कारण उसे दिव्य ज्ञान और विवेक प्राप्त हो जाता है।

भगवद्गीता
भगवद्गीता- फोटो : jeevanjali

विस्तार

Bhagavad Gita Part 103: भगवद्गीता के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि, जब व्यक्ति अपने मन पर काबू करता है तो उसकी बुद्धि शुद्ध हो जाती है जिसके कारण उसे दिव्य ज्ञान और विवेक प्राप्त हो जाता है।

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सुहृन्मित्रायुदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु, साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ( अध्याय 6 श्लोक 9 )

सु-हत्-शुभ चिन्तक के प्रति; मित्र-मित्र; अरि-शत्रु; उदासीन-तटस्थ व्यक्ति; मध्य-स्थ-मध्यस्थता करना; द्वेष्य ईर्ष्यालु, बन्धुषु-संबंधियों; साधुषु-पुण्य आत्माएँ; अपि-उसी प्रकार से; च-तथा; पापेषु–पापियों के; सम-बुद्धिः-निष्पक्ष बुद्धि वाला; विशिष्यते-श्रेष्ठ हैं;

अर्थ - सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन,मध्यस्थ, द्वेष्य और सम्बन्धियों में तथा साधु-आचरण करने वालों में (और) पाप-आचरण करने वालों में भी समबुद्धि वाला मनुष्य श्रेष्ठ है।

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व्याख्या - इस श्लोक में भगवान् श्री कृष्ण समझाते है कि योगी की प्रवृति एक साधारण मनुष्य से भिन्न हो जाती है। आम तौर पर एक मनुष्य अपने मित्र और शत्रु को अलग अलग दृष्टि से देखता है और दोनों के साथ अलग व्यवहार करता है लेकिन योगी समबुद्धि वाला होता है। उसके अनुसार सभी प्राणी ईश्वर का अंश है और वो उनमे ईश्वर को देखता है। इसलिए श्री कृष्ण इस प्रकार के योगी को मनुष्यों में उत्तम बताते है।

योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः, एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ( अध्याय 6 श्लोक 10 )


योगी-योगी; युञ्जीत–साधना में लीन रहना; सततम्-निरन्तर; आत्मानम्-स्वयं; रहसि-एकान्त वास में; स्थित-रहकर; एकाकी-अकेला; यत-चित्त-आत्मा-नियंत्रित मन और शरीर के साथ; निराशी:-कामना रहित; अपरिग्रहः-सुखों का संग्रह करने की भावना से रहित।

अर्थ - योग की अवस्था प्राप्त करने के इच्छुक साधकों को चाहिए कि वे एकान्त स्थान में रहें और मन एवं शरीर को नियंत्रित कर निरन्तर भगवान के चिन्तन में लीन रहें तथा समस्त कामनाओं और सुखों का संग्रह करने से मुक्त रहें।

व्याख्या - इस अध्याय के पिछले श्लोकों में श्री कृष्ण योगीजन की विशेषता बतलाते है और अब योगी कैसे बना जाए ! वो समझा रहे है। श्री कृष्ण कहते है कि योगी को सांसारिक कोलाहल से मुक्त होने की कोशिश करनी चाहिए यानी कि उसे एकांत में रहना सीखना चाहिए। आम तौर पर हम देखते है कि एकांत के नाम से ही लोग घबरा जाते है। उनका हृदय कांपने लगता है। एक आम इंसान अपने करीबी लोगो के बिना रह ही नहीं सकता।

वो बीमार हो जाता है लेकिन योगी का स्वाभाव इससे ठीक विपरीत होना चाहिए। इसके बाद उसे धीरे 2 अपने मन की इच्छाओं को काबू में करना चाहिए। इसके बाद उसे अपनी इन्द्रियों को वश में करके समस्त कामनाओं का त्याग करना चाहिए। निरंतर श्री भगवान् के चिंतन में जो लीन रहना सीख ले वही योगी बन सकता है।

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